स एव पुण्यपापद्वयं निश्चयनयेन हेयमपि मोहवशात्पुण्यमुपादेयं करोति पापं हेयं करोतीति
भावार्थः ।।५३।।
अथ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपरिणतमात्मानं योऽसौ मुक्ति कारणं न जानाति स
पुण्यपापद्वयं करोतीति दर्शयति —
१८१) दंसण-णाण-चरित्तमउ जो णवि अप्पु मुणेइ ।
मोक्खहँ कारणु भणिवि जिय सो पर ताइँ करेइ ।।५४।।
दर्शनज्ञानचारित्रमयं यः नैवात्मानं मनुते ।
मोक्षस्य कारणं भणित्वा जीव स परं ते करोति ।।५४।।
दंसणणाणचरित्त इत्यादि । दंसण-णाण-चरित्तमउ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमयं जो णवि
अप्पु मुणेइ यः कर्ता नैवात्मानं मनुते जानाति । किं कृत्वा न जानाति । मोक्खहं कारणु भणिवि
तोपण — मोहना वशे पुण्यने उपादेय करे छे अने पापने हेय करे छे, एवो भावार्थ छे. ५३.
हवे, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्ररूपे परिणत आत्मा मुक्तिनुं कारण छे,
एम जे कोई जाणतो नथी ते पुण्य अने पाप बन्नेने करे छे, एम दर्शावे छे.
भावार्थः — निजशुद्धात्मभावनाथी उत्पन्न वीतराग सहजानंद जेनुं एक रूप छे एवा सुख-
रसना आस्वादनी रुचिरूप सम्यग्दर्शन छे, ते ज स्वशुद्धात्मामां एक (केवळ) वीतराग सहजानंद-
३०८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-५४
कारण ऐसा जो नहीं जानता है, वही मोहके वशसे पुण्य-पापका कर्ता होता है । पुण्यको उपादेय
जानके करता है, पापको हेय समझता है ।।५३।।
आगे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप परिणमता जो आत्मा वह ही मुक्तिका
कारण है, जो ऐसा भेद नहीं जानता है, वही पुण्य-पाप दोनोंका कर्ता है, ऐसा दिखलाते हैं —
गाथा – ५४
अन्वयार्थ : — [यः ] जो [दर्शनज्ञानचारित्रमयं ] सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमयी
[आत्मानं ] आत्माको [नैव मनुते ] नहीं जानता, [स एव ] वही [जीव ] हे जीव; [ते ] उन
पुण्य-पाप दोनोंको [मोक्षस्य कारणं ] मोक्षके कारण [भणित्वा ] जानकर [करोति ] करता
है ।
भावार्थ : — निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न जो वीतराग सहजानंद एकरूप
सुखरसका आस्वाद उसकी रुचिरूप सम्यग्दर्शन, उसी शुद्धात्मामें वीतराग नित्यानंद