Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 57 (Adhikar 2).

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‘आर्ता नरा धर्मपरा भवन्ति’ इति वचनात् ।।५६।।
अथ निदानबन्धोपार्जितानि पुण्यानि जीवस्य राज्यादिविभूतिं दत्त्वा नारकादिदुःखं
जनयन्तीति हेतोः समीचीनानि न भवन्तीति कथयति
१८४) मं पुणु पुण्णइं भल्लाइँ णाणिय ताइँ भणंति
जीवहँ रज्जइँ देवि लहु दुक्खहँ जाइँ जणंति ।।५७।।
मा पुनः पुण्यानि भद्राणि ज्ञानिनः तानि भणन्ति
जीवस्य राज्यानि दत्त्वा लघु दुःखानि यानि जनयन्ति ।।५७।।
(सत्य धर्मने) पामे छे ते पापजनित दुःख पण श्रेष्ठ छे कारण के ‘‘आर्ता नरा धर्मपरा भवन्ति’’
(अर्थघणुं करीने दुःखी मनुष्यो धर्मसन्मुख थाय छे एवुं आगमनुं वचन छे.) .५६.
हवे, निदानबंधथी उपार्जित पुण्यो जीवने राज्यादिनी विभूति आपीने नरकादिनां दुःख
उपजावे छे ते कारणे तेओ समीचीन नथी, एम कहे छेः
अधिकार-२ः दोहा-५७ ]परमात्मप्रकाशः [ ३१३
मोक्षमार्गमें बुद्धिको लगावे, तो वे अशुभ भी अच्छे हैं तथा जो अज्ञानी जीव किसी समय
अज्ञान तपसे देव भी हुआ और देवसे मरके एकेंद्री हुआ तो वह देवपर्याय पाना किस
कामका अज्ञानीके देवपद पाना भी वृथा है जो कभी ज्ञानके प्रसादसे उत्कृष्ट देव होके
बहुत काल तक सुख भोगके देवसे मनुष्य होकर मुनिव्रत धारण करके मोक्षको पावे, तो उसके
समान दूसरा क्या होगा
जो नरकसे भी निकलकर कोई भव्यजीव मनुष्य होके महाव्रत धारण
करके मुक्ति पावे, तो वह भी अच्छा है ज्ञानी पुरुष उन पापियोंको भी श्रेष्ठ कहते हैं, जो
पापके प्रभावसे दुःख भोगकर उस दुःखसे डरके दुःखके मूलकारण पापको जानके उस पापसे
उदास होवें, वे प्रशंसा करने योग्य हैं, और पापी जीव प्रशंसाके योग्य नहीं हैं, क्योंकि पाप
क्रिया हमेशा निंदनीय है भेदाभेदरत्नत्रयस्वरूप श्रीवीतरागदेवके धर्मको जो धारण करते हैं
वे श्रेष्ठ हैं यदि सुखी धारण करे तो भी ठीक, और दुःखी धारण करे तब भी ठीक क्योंकि
शास्त्रका वचन है, कि कोई महाभाग दुःखी हुए ही धर्ममें लवलीन होते हैं ।।५६।।
आगे निदानबंधसे उपार्जन किये हुए पुण्यकर्म जीवको राज्यादि विभूति देकर नरकादि
दुःख उत्पन्न कराते हैं, इसलिये अच्छे नहीं हैं
गाथा५७
अन्वयार्थ :[पुनः ] फि र [तानि पुण्यानि ] वे पुण्य भी [मा भद्राणि ] अच्छे नहीं