मं पुणु इत्यादि । मं पुणु मा पुनः न पुनः पुण्णइं भल्लाइं पुण्यानि भद्राणि
भवन्तीति णाणिय ताइं भणंति ज्ञानिनः पुरुषास्तानि पुण्यानि कर्मतापन्नानि भणन्ति । यानि
किं कुर्वन्ति । जीवहं रज्जइं देवि लहु दुक्खइं जाइं जणंति यानि पुण्यकर्माणि जीवस्य
राज्यानि दत्त्वा लघु शीघ्रं दुःखानि जनयन्ति । तद्यथा । निजशुद्धात्मभावनोत्थवीतराग-
परमानन्दैकरूपसुखानुभवविपरीतेन द्रष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानबन्धपूर्वकज्ञानतपदानादिना
यान्युपार्जितानि पुण्यकर्माणि तानि हेयानि । कस्मादिति चेत् । निदानबन्धोपार्जितपुण्येन
भवान्तरे राज्यादिविभूतौ लब्धायां तु भोगान् त्यक्तुं न शक्नोति तेन पुण्येन नरकादिदुःखं
लभते । रावणादिवत् । तेन कारणेन पुण्यानि हेयानीति । ये पुनर्निदानरहितपुण्यसहिताः
पुरुषास्ते भवान्तरे राज्यादिभोगे लब्धेऽपि भोगांस्त्यक्त्वा जिनदीक्षां गृहीत्वा चोर्ध्वगतिगामिनो
भावार्थः — निजशुद्धात्मानी भावनाथी उत्पन्न वीतराग परमानंद जेनुं एक रूप
छे एवा सुखना अनुभवथी विपरीत देखेला, सांभळेला अने अनुभवेला भोगोनी
आकांक्षारूप निदानबंधपूर्वक ज्ञान, तप अने दानादिथी उपार्जित करेलां जे पुण्यकर्मो छे ते
हेय छे; शा माटे? कारण के निदानबंधथी उपार्जित पुण्यथी बीजा भवमां राज्यादिनी
विभूति प्राप्त थतां तो जीव भोगोने छोडी शकतो नथी, तेथी रावणादिनी माफक ते पुण्यथी
नरकादिना दुःख पामे छे माटे तेवा पुण्यो हेय छे. वळी निदान रहित एवा पुण्य सहित
जे पुरुषो छे ते बीजा भवमां राज्यादिना भोग प्राप्त थतां पण भोगोने छोडीने,
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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-५७
हैं, [यानि ] जो [जीवस्य ] जीवको [राज्यानि दत्त्वा ] राज देकर [लघु ] शीघ्र ही [दुःखानि ]
नरकादि दुःखोंको [जनयंति ] उपजाते हैं, [ज्ञानिनः ] ऐसा ज्ञानीपुरुष [भणंति ] कहते हैं ।
भावार्थ : — निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न जो वीतराग परमानंद अतींद्रियसुखका
अनुभव उससे विपरीत जो देखे, सुने, भोगे इन्द्रियोंके भोग उनकी वाँछारूप निदानबंधपूर्वक
दान तप आदिकसे उपार्जन किये जो पुण्यकर्म हैं, वे हेय हैं । क्योंकि वे निदानबंधसे उपार्जन
किये पुण्यकर्म जीवको दूसरे भवमें राजसम्पदा देते हैं । उस राज्यविभूतिको अज्ञानी जीव पाकर
विषय भोगोंको छोड़ नहीं सकता, उससे नरकादिकके दुःख पाता है, रावणकी तरह, इसलिये
अज्ञानियोंके पुण्य – कर्म भी होता है, और जो निदानबंध रहित ज्ञानी पुरुष हैं, वे दूसरे भवमें
राज्यादि भोगोंको पाते हैं, तो भी भोगोंको छोड़कर जिनराजकी दीक्षा धारण करते हैं । धर्मको
सेवनकर ऊ र्ध्वगतिगामी बलदेव आदिककी तरह होते हैं । ऐसा दूसरी जगह भी कहा है, कि
भवान्तरमें निदानबंध नहीं करते हुए जो महामुनि हैं, वे महान् तपकर स्वर्गलोक जाते हैं । वहाँसे
चयकर बलभद्र होते हैं । वे देवोंसे अधिक सुख भोगकर राज्यका त्याग करके मुनिव्रतको