भवन्ति बलदेवादिवदिति भावार्थः । तथा चोक्त म् — ‘ऊर्ध्वगा बलदेवाः स्युर्निर्निदाना
भवान्तरे ।’ इत्यादिवचनात् ।।५७।।
अथ निर्मलसम्यक्त्वाभिमुखानां मरणमपि भद्रं, तेन विना पुण्यमपि समीचीन न
भवतीति प्रतिपादयति —
१८५) वर णिय-दंसण-अहिमुहउ मरणु वि जीव लहेसि ।
मा णिय-दंसण-विम्मुहउ पुण्णु वि जीव करेसि ।।५८।।
वरं निजदर्शनाभिमुखः मरणमपि जीव लभस्व ।
मा निजदर्शनविमुखः पुण्यमपि जीव करिष्यसि ।।५८।।
वर इत्यादि । वर णिय-दंसण-अहिमुहउ वरं किंतु निजदर्शनाभिमुखः सन् मरणु वि
जिनदीक्षा लईने बळदेवनी माफक ऊर्ध्वगतिगामी थाय छे, एवो भावार्थ छे. कह्युं छे के
‘‘ऊर्ध्वगा बलदेवाः स्युर्निर्निदाना भवान्तरे’’ (अर्थः — पूर्वभवमां जेणे निदानबंध कर्यो नथी
एवा बळदेवो ऊर्ध्वगामी थाय छे.) ५७.
हवे, निर्मळ सम्यक्त्वनी सन्मुख थयेला जीवोनुं मरण पण भद्र छे, सम्यक्त्व विनानुं
पुण्य पण समीचीन नथी, एम कहे छेः —
भावार्थः — पोताना निर्दोष परमात्मानी अनुभूतिनी रुचिरूप त्रण गुप्तिथी गुप्त
अधिकार-२ः दोहा-५८ ]परमात्मप्रकाशः [ ३१५
धारणकर या तो केवलज्ञान पाके मोक्षको ही पधारते हैं, या बड़ी ऋद्धिके धारी देव होते हैं,
फि र मनुष्य होकर मोक्षको पाते हैं ।।५७।।
आगे ऐसा कहते हैं, कि निर्मल सम्यक्त्वधारी जीवोंका मरण भी सुखकारी है, उनका
मरना अच्छा है, और सम्यक्त्वके बिना पुण्यका उदय भी अच्छा नहीं है —
गाथा – ५८
अन्वयार्थ : — [जीव ] हे जीव, [निजदर्शनाभिमुखः ] जो अपने सम्यग्दर्शनके
सन्मुख होकर [मरणमपि ] मरणको भी [लभस्व वरं ] पावे, तो अच्छा है, परन्तु [जीव ] हे
जीव, [निजदर्शनविमुखः ] अपने सम्यग्दर्शनसे विमुख हुआ [पुण्यमपि ] पुण्य भी
[करिष्यसि ] करे [मा वरं ] तो अच्छा नहीं ।
भावार्थ : — निर्दोष निज परमात्माकी अनुभूतिकी रुचिरूप तीन गुप्तिमयी जो