धर्मपुत्रभीमार्जुनादिवदक्षयसुखं लभन्ते, ये केचन पुनर्नकुलसहदेवादिवत् स्वर्गसुखं लभन्ते । ये
तु सम्यक्त्वरहितास्ते पुण्यं कुर्वाणा अपि दुःखमनन्तमनुभवन्तीति तात्पर्यम् ।।५९।।
अथ निश्चयेन पुण्यं निराकरोति —
१८७) पुण्णेण होइ विहवो विहवेण मओ मएण मइ-मोहो ।
मइ-मोहेण य पावं ता पुण्णं अम्ह मा होउ ।।६०।।
पुण्येन भवति विभवो विभवेन मदो मदेन मतिमोहः ।
मतिमोहेन च पापं तस्मात् पुण्यं अस्माकं मा भवतु ।।६०।।
पुण्णेण इत्यादि । पुण्णेण होइ विहवो पुण्येन विभवो विभूतिर्भवति, विहवेण मआे
विभवेन मदोऽहंकारो गर्वो भवति, मएण मइ-मोहाे विज्ञानाद्यष्टविधमदेन मतिमोहो मतिभ्रंशो
तेमांना केटलाक तो आ भवमां ज युधिष्ठिर, भीम, अर्जुनादिनी माफक अक्षय सुख पामे छे
अने केटलाक नकुल, सहदेवादिनी माफक स्वर्गसुख पामे छे, पण जेओ सम्यक्त्व रहित छे तेओ
पुण्य करवा छतां पण अनंत दुःख ज अनुभवे छे. ५९.
हवे, निश्चयनयथी पुण्यने निषेधे छे.
भावार्थः — भेदाभेदरत्नत्रयनी आराधना रहित, देखेला, सांभळेला अने अनुभवेला
भोगोनी आकांक्षारूप निदानबंधना परिणाम सहित जे जीव छे ते जीवथी पूर्वभवमां जे आ
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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-६०
वे इसी भवमें युधिष्ठिर, भीम, अर्जुनकी तरह अविनाशी सुखको पाते हैं, और कितने ही नकुल,
सहदेवकी तरह अहमिंद्र – पदके सुख पाते हैं । तथा जो सम्यक्त्वसे रहित मिथ्यादृष्टिजीव पुण्य
भी करते हैं, तो भी मोक्षके अधिकारी नहीं हैं, संसारीजीव ही हैं, यह तात्पर्य जानना ।।५९।।
आगे निश्चयसे मिथ्यादृष्टियोंके पुण्यका निषेध करते हैं —
गाथा – ६०
अन्वयार्थ : — [पुण्येन ] पुण्यसे घरमें [विभवः ] धन [भवति ] होता है, और
[विभवेन ] धनसे [मदः ] अभिमान, [मदेन ] मानसे [मतिमोहः ] बुद्धिभ्रम होता है,
[मतिमोहेन ] बुद्धिके भ्रम होनेसे (अविवेकसे) [पापं ] पाप होता है, [तस्मात् ] इसलिये
[पुण्यं ] ऐसा पुण्य [अस्माकं ] हमारे [मा भवतु ] न होवे ।
भावार्थ : — भेदाभेदरत्नत्रयकी आराधनासे रहित, देखे, सुने, अनुभव किये भोगोंकी
वाँछारूप निदानबंधके परिणामों सहित जो मिथ्यादृष्टि संसारी अज्ञानी जीव हैं, उसने पहले