लेशतोऽपि न गुणास्तेषां तथाप्युद्धताः ।।’’ ।।६०।।
अथ देवशास्त्रगुरुभक्त्या मुख्यवृत्त्या पुण्यं भवति न च मोक्ष इति प्रतिपादयति —
१८८) देवहं सत्थहं मुणिवरहँ भत्तिए पुण्णु हवेइ ।
कम्म-क्खउ पुणु होइ णवि अज्जउ संति भणेइ ।।६१।।
देवानां शास्त्राणां मुनिवराणां भक्त्या पुण्यं भवति ।
कर्मक्षयः पुनः भवति नैव आर्यः शान्ति भणति ।।६१।।
देवहं इत्यादि । देवहं सत्थहं मुणिवरहं भत्तिए पुण्णु हवेइ देवशास्त्रमुनीनां भक्त्या पुण्यं
भवति कम्म-क्खउ पुणु, होइ णवि कर्मक्षयः पुनर्मुख्यवृत्त्या नैव भवति । एवं कोऽसौ भणति ।
३२० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-६१
हैं, तो भी उनके उद्धतपना है, यानी गुण तो रंचमात्र भी नहीं, और अभिमानमें बुद्धि रहती
है ।।६०।।
आगे देव-गुरु-शास्त्रकी भक्तिसे मुख्यतासे तो पुण्यबंध होता है, उससे परम्पराय मोक्ष
होता है, साक्षात् मोक्ष नहीं, ऐसा कहते हैं —
गाथा – ६१
अन्वयार्थ : — [देवानां शास्त्राणां मुनिवराणां ] श्रीवीतरागदेव, द्वादशांग शास्त्र और
दिगम्बर साधुओंकी [भक्त्या ] भक्ति करनेसे [पुण्यं भवति ] मुख्यतासे पुण्य होता है, [पुनः ]
लेकिन [कर्मक्षयः ] तत्काल कर्मोंका क्षय [नैव भवति ] नहीं होता, ऐसा [आर्यः शांतिः ]
शांति नाम आर्य अथवा कपट रहित संत पुरुष [भणति ] कहते हैं ।
भावार्थ : — सम्यक्त्वपूर्वक जो देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति करता है, उसके मुख्य तो
याचकोने लक्ष्मीनुं पूर्णदान अने निवृत्तिना निर्वाणमार्गमां गमन, आवा गुणो जेनामां रह्या
हता छतां पण तेओ अभिमानथी रहित हता, एम आगमथी जाणवा मळे छे पण
आश्चर्य छे के हालमां-पंचमकाळमां-लेश पण गुणो न होय तोपण मनुष्यो उद्धत छे –
अभिमानी छे.) ६०.
हवे, देव-गुरु-शास्त्रनी भक्तिथी मुख्यपणे पुण्य थाय छे पण मोक्ष थतो नथी, एम कहे
छेः —
भावार्थः — सम्यक्त्वपूर्वक देवगुरुशास्त्रनी भक्तिथी मुख्यपणे पुण्य ज थाय छे
पण मोक्ष नहि.