मोक्षलक्ष्मीसुखसुधारसपिपासिताः सन्तः संसारस्थितिविच्छेदकारणं विषयकषायोत्पन्नदुर्ध्यानविनाश-
हेतुभूतं च परमेष्ठिसंबन्धिगुणस्मरणदानपूजादिकं कुर्युरिति । अयमत्र भावार्थः । तेषां पञ्च-
परमेष्ठिभक्त्यादिपरिणतानां कुटुम्बिनां पलालवदनीहितं पुण्यमास्रवतीति ।।६१।।
अथ देवशास्त्रमुनीनां योऽसौ निन्दां करोति तस्य पापबन्धो भवतीति कथयति —
१८९) देवहं सत्थहँ मुणिवरहँ जो विद्देसु करेइ ।
णियमेँ पाउ हवेइ तसु जेँ संसारु भमेइ ।।६२।।
देवानां शास्त्राणां मुनिवराणां यो विद्वेषं करोति ।
नियमेन पापं भवति तस्य येन संसारं भ्रमति ।।६२।।
देवहं इत्यादि । देवहं सत्थहं मुणिवरहं जो विद्देसु करेइ देवशास्त्रमुनीनां
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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-६२
किसानकी दृष्टि अन्न पर है, तृण भूसादि पर नहीं है । बिना चाहा पुण्यका बंध सहजमें ही हो
जाता है । वह उनको संसारमें नहीं भटका सकता है । वे तो शिवपुरीके ही पात्र हैं ।।६१।।
आगे देव-शास्त्र-गुरुकी जो निंदा करता है, उसके महान् पापका बंध होता है, वह
पापी पापके प्रभावसे नरक निगोदादि खोटी गतिमें अनंतकाल तक भटकता है —
गाथा – ६२
अन्वयार्थ : — [देवानां शास्त्राणां मुनिवराणां ] वीतरागदेव, जिनसूत्र और
निर्ग्रंथमुनियोंसे [यः ] जो जीव [विद्वेषं ] द्वेष [करोति ] करता है, [तस्य ] उसके [नियमेन ]
निश्चयसे [पापं ] पाप [भवति ] होता है, [येन ] जिस पापके कारणसे वह जीव [संसारं ]
संसारमें [भ्रमति ] भ्रमण करता है । अर्थात् परम्पराय मोक्षके कारण और साक्षात् पुण्यबंधके
कारण जो देव-शास्त्र-गुरु हैं, इनकी जो निंदा करता है, उसके नियमसे पाप होता है, पापसे
दुर्गतिमें भटकता है ।
भावार्थ : — निज परमात्मद्रव्यकी प्राप्तिकी रुचि वही निश्चयसम्यक्त्व, उसका कारण
अहीं, ए भावार्थ छे के जेवी रीते खेडूतने त्यां धान्यनी साथे साथे वगर प्रयासे
घास पाके छे तेवी रीते पंचपरमेष्ठीनी भक्ति आदिमां परिणत जीवोने अनीहित (इच्छा
विनाना) पुण्यनो आश्रव थाय छे. ६१.
हवे, देव, गुरु, शास्त्रनी निंदा करे छे तेने पापबंध थाय छे, एम कहे छेः —
भावार्थः — निज परमात्मपदार्थनी प्राप्तिनी रुचिरूप निश्चयसम्यक्त्वना कारणभूत अने