परिरक्षणं निश्चयशीलं तदपि तेषामेव । तउ द्वादशविधतपश्चरणबलेन परद्रव्येच्छानिरोधं कृत्वा
शुद्धात्मनि प्रतपनं विजयनं तप इति । तदपि तेषामेव । सुद्धहं शुद्धोपयोगिनां दंसणु
छद्मस्थावस्थायां स्वशुद्धात्मनि रुचिरूपं सम्यग्दर्शनं केवलज्ञानोत्पत्तौ सत्यां तस्यैव फलभूतं
अनीहितविपरीताभिनिवेशरहित परिणामलक्षणं क्षायिकसम्यक्त्वं केवलदर्शनं वा तेषामेव । णाणु
वीतरागस्वसंवेदनज्ञानं तस्यैव फलभूतं केवलज्ञानं वा सुद्धहं शुद्धोपयोगिनामेव । कम्मक्खउ
परमात्मस्वरूपोपलब्धिलक्षणो द्रव्यभावकर्मक्षयः हवइ तेषामेव भवति । सुद्धउ शुद्धोपयोग-
परिणामस्तदाधारपुरुषो वा तेण पहाणु येन कारणेन पूर्वोक्ताः संयमादयो गुणाः शुद्धोपयोगे
लभ्यन्ते तेन कारणेन स एव प्रधान उपादेयः इति तात्पर्यम् । तथा चोक्तं शुद्धोपयोगफलम् —
अधिकार-२ः दोहा-६७ ]परमात्मप्रकाशः [ ३३१
अपनेसे अपने आत्मामें प्रवृत्ति करना यह निश्चयशील, रागादिके त्यागनेसे शुद्ध भावकी रक्षा
करना वह भी निश्चयशील है, और देवांगना, मनुष्यनी, तिर्यंचनी तथा काठ पत्थर चित्रामादिकी
अचेतन स्त्री – ऐसे चार प्रकारकी स्त्रियोंका मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदनासे त्याग
करना, वह व्यवहारशील है, ये दोनों शील शुद्ध चित्तवालोंके ही होते हैं । तप अर्थात् बारह
तरहका तप उसके बलसे भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्मरूप सब वस्तुओंमें इच्छा छोड़कर
शुद्धात्मामें मग्न रहना, काम क्रोधादि शत्रुओंके वशमें न होना, प्रतापरूप विजयरूप जितेंद्री
रहना । यह तप शुद्ध चित्तवालोंके ही होता है । दर्शन अर्थात् साधक अवस्थामें तो शुद्धात्मामें
रुचिरूप सम्यग्दर्शन और केवली अवस्थामें उस सम्यग्दर्शनका फलरूप संशय, विमोह, विभ्रम
रहित निज परिणामरूप क्षायिकसम्यक्त्व केवलदर्शन यह भी शुद्धोंके ही होता है । ज्ञान अर्थात्
रागादिनो परिहार करीने व्रतनुं सर्वप्रकारे त्याग वडे रक्षण करवुं ते निश्चयशील छे, ते पण तेमने
ज होय छे.
‘तउ’ बार प्रकारना तपश्चरणना बळथी परद्रव्यनी इच्छानो निरोध करीने शुद्ध
आत्मामां प्रतपन-विजयन-ते तप छे, ते पण तेमने ज होय छे.
‘दंसणु’ छद्मस्थ-अवस्थामां पोताना शुद्ध आत्मानी रुचिरूप सम्यग्दर्शन अथवा
केवळज्ञाननी उत्पत्ति थतां तेना ज फळरूप, विपरीत अभिनिवेश रहित अनीहित परिणामरूप
क्षायिकसम्यक्त्व के केवळदर्शन पण तेमने ज होय छे.
‘णाणु’ वीतराग स्वसंवेदनरूप ज्ञान अथवा तेना ज फळरूप केवळज्ञान पण शुद्ध
उपयोगीओने ज होय छे.
‘कम्मक्खउ’ परमात्मस्वरूपनी प्राप्तिरूप द्रव्यभावकर्मनो नाश तेमने ज होय छे.
‘सुद्धउ तेण पहाणु’ शुद्धोपयोगरूप परिणाम अथवा ते परिणामना धारण करनार
पुरुष ते ज प्रधान छे-उपादेय छे कारण के पूर्वोक्त संयमादि गुणो शुद्धोपयोगमां ज प्राप्त होय