भाउ इत्यादि । भाउ भावः परिणामः । कथंभूतः । विसुद्धउ विशेषेण शुद्धो
मिथ्यात्वरागादिरहितः अप्पणउ आत्मीयः धम्मु भणेविणु लेहु धर्म भणित्वा मत्वा
प्रगृह्णीथाः । यो धर्मः किं करोति । चउ-गइ-दुक्खहं जा धरइ चतुर्गतिदुःखेभ्यः सकाशात्
उद्धत्य यः कर्ता धरति । कं धरति । जीउ पडंतउ एहु जीवमिमं प्रत्यक्षीभूतं संसारे
पतन्तमिति । तद्यथा । धर्मशब्दस्य व्युत्पत्तिः क्रियते । संसारे पतन्तं प्राणिनमुद्धृत्य नरेन्द्र
नागेन्द्रदेवेन्द्रवन्द्ये मोक्षपदे धरतीति धर्मं इति धर्मशब्देनात्र निश्चयेन जीवस्य शुद्धपरिणाम
एव ग्राह्यः । तस्य तु मध्ये वीतरागसर्वज्ञप्रणीतनयविभागेन सर्वे धर्मा अन्तर्भूता लभ्यन्ते ।
तथा अहिंसालक्षणो धर्मः, सोऽपि जीवशुद्धभावं विना न संभवति । सागारानगारलक्षणो
धर्मः सोऽपि तथैव उत्तमक्षमादिदशविधो धर्मः सोऽपि जीवशुद्धभावमपेक्षते ।
‘सद्रष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः’ इत्युक्तं यद्धर्मलक्षणं तदपि तथैव । रागद्वेषमोहरहितः
अधिकार-२ः दोहा-६८ ]परमात्मप्रकाशः [ ३३३
भावार्थः — ‘धर्म’ शब्दनी व्युत्पत्ति करवामां आवे छे के ‘संसारमां पडता प्राणीओने
बचावीने जे नरेन्द्र, नागेन्द्र अने देवेन्द्रथी वंद्य मोक्षपदमां धारी राखे छे ते धर्म छे. ‘धर्म’
शब्दथी अहीं निश्चयथी जीवना शुद्ध परिणाम ज समजवा अने तेमां (ते शुद्ध परिणाममां ज)
वीतरागसर्वज्ञप्रणीत नयविभागथी सर्व धर्मो अन्तर्भूत थाय छे. जेम के अहिंसास्वरूप धर्म, ते
पण जीवना शुद्ध भाव विना होतो नथी. यतिश्रावकनो धर्म, सागार अणगार धर्म, ते पण
तेम ज उत्तमक्षमादि दशप्रकारनो धर्म ते पण जीवना शुद्ध भावनी अपेक्षा राखे छे.
‘‘सद्रष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः’’
[आत्मीयः ] अपना है, और अशुद्ध परिणाम अपने नहीं हैं, सो शुद्ध भावको ही [धर्मं भणित्वा ]
धर्म समझकर [गृह्णीथाः ] अंगीकार करो । [यः ] जो आत्मधर्म [चतुर्गतिदुःखेभ्यः ] चारों
गतियोंके दुःखोंसे [पतंतम् ] संसारमें पड़े हुए [इमम् जीवं ] इस जीवको निकालकर [धरति ]
आनंद – स्थानमें रखता है ।
भावार्थ : — धर्म शब्दका शब्दार्थ ऐसा है, कि संसारमें पड़ते हुए प्राणियोंको
निकालकर मोक्ष – पदमें रखे, वह धर्म है, वह मोक्ष – पद देवेन्द्र, नागेन्द्र, नरेन्द्रोंकर वंदने योग्य
है । जो आत्माका निज स्वभाव है वही धर्म है, उसीमें जिनभाषित सब धर्म पाये जाते हैं ।
जो दयास्वरूप धर्म है, वह भी जीवके शुद्ध भावोंके बिना नहीं होता, यति श्रावकका धर्म भी
शुद्ध भावोंके बिना नहीं होता, उत्तम क्षमादि दशलक्षणधर्म भी शुद्ध भाव बिना नहीं हो सकता,
और रत्नत्रयधर्म भी शुद्ध भावोंके बिना नहीं हो सकता । ऐसा ही कथन जगह जगह ग्रंथोंमें
है, ‘‘सद्दृष्टि’’ इत्यादि श्लोकसे — उसका अर्थ यह है, कि धर्मके ईश्वर भगवान्ने सम्यग्दर्शन,