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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-७०
मोक्षके इच्छुकको वही भाव हमेशा करना चाहिये ।।६९।।
आगे यह प्रकट करते हैं, कि किसी देशमें जावो, चाहे जो तप करो, तो भी चित्तकी
शुद्धिके बिना मोक्ष नहीं है —
गाथा – ७०
अन्वयार्थ : — [जीव ] हे जीव, [यत्र ] जहाँ [भाति ] तेरी इच्छा ही [तत्र ] उसी
देशमें [याहि ] जा, और [यत् ] जो [भाति ] अच्छा लगे, [तदेव ] वही [कुरु ] कर, [परं ]
लेकिन [यदेव ] जब तक [चित्तस्य शुद्धिः न ] मनकी शुद्धि नहीं है, तब तक [कथमपि ]
किसी तरह [मोक्षो नास्ति ] मोक्ष नहीं हो सकता ।
भावार्थ : — बड़ाई, प्रतिष्ठा, परवस्तुका लाभ, और देखे, सुने, भोगे हुए भोगोंकी
वाँछारूप खोटे ध्यान, (जो कि शुद्धात्मज्ञानके शत्रु हैं) इनसे जब तक यह चित्त रँगा हुआ
अहीं, जे कारणथी निजशुद्धात्माना अनुभूतिरूप परिणाम ज मोक्षमार्ग छे ते कारणथी
मोक्षार्थीए ते ज भाव निरंतर करवा योग्य छे, एवो तात्पर्यार्थ छे. ६९.
हवे, कोई पण देशमां जाओ, कोई पण अनुष्ठान करो, तोपण चित्तशुद्धि विना मोक्ष
नथी, एम प्रगट करे छेः —
भावार्थः — शुद्धात्मानी अनुभूतिथी प्रतिपक्षभूत अने ख्याति, पूजा, लाभनी अने
देखेला, सांभळेला अने अनुभवेला भोगोनी आकांक्षारूप दुर्ध्यानथी ज्यां सुधी चित्त रंजित
लभते किंतु नैव । अत्र येन कारणेन निजशुद्धात्मानुभूतिपरिणाम एव मोक्षमार्गस्तेन कारणेन
मोक्षार्थिना स एव । निरन्तरं कर्तव्य इति तात्पर्यार्थः ।।६९।।
अथ क्वापि देशे गच्छ किमप्यनुष्ठानं कुरु तथापि चित्तशुद्धिं विना मोक्षो नास्तीति
प्रकटयति —
१९७) जहिँ भावइ तहिँ जाहि जिय जं भावइ करि तं जि ।
केम्वइ मोक्खु ण अत्थि पर चित्तहँ सुद्धि ण जं जि ।।७०।।
अत्र भाति तत्र याहि जीव यद् भाति कुरु तदेव ।
कथमपि मोक्षः नास्ति परं चित्तस्य शुद्धिर्न यदेव ।।७०।।
जहिं भावइ इत्यादि । जहिं भावइ तहिं यत्र देशे प्रतिभाति तत्र जाहि गच्छ जिय
हे जीव । जं भावइ करि तं जि यदनुष्ठानं प्रतिभाति कुरु तदेव । केम्वइ मोक्खु ण अत्थि