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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-७१
१९८) सुह-परिणामेँ धम्मु पर असुहेँ होइ अहम्मु ।
दोहिँ वि एहिँ विवज्जियउ सुद्धु ण बंधइ कम्मु ।।७१।।
शुभपरिणामेन धर्मः परं अशुभेन भवति अधर्मः ।
द्वाभ्यामपि एताभ्यां विवर्जितः शुद्धो न बध्नाति कर्म ।।७१।।
सुह इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । सुह-परिणामें धम्मु पर शुभपरिणामेन
धर्मः परिणामेन धर्मः पुण्यं भवति मुख्यवृत्त्या । असुहें होइ अहम्मु अशुभपरिणामेन भवत्यधर्मः
पापम् । दोहिं वि एहिं विवज्जियउ द्वाभ्यां एताभ्यां शुभाशुभपरिणामाभ्यां विवर्जितः । कोऽसौ । सुद्धु
शुद्धो मिथ्यात्वरागादिरहितपरिणामस्तत्परिणतपुरुषो वा । किं करोति । ण बंधइ न बध्नाति ।
किम् । कम्मु ज्ञानावरणादिकर्मेति । तद्यथा । कृष्णोपाधिपीतोपाधिस्फ टिकवदयमात्मा क्रमेण
शुभाशुभ-शुद्धोपयोगरूपेण परिणामत्रयं परिणमति । तेन तु मिथ्यात्वविषयकषायाद्यवलम्बनेन पापं
भावार्थः — जेवी रीते स्फटिकमणि काळा रंगनी उपाधिना सद्भावमां काळो, पीळा रंगनी
उपाधिना सद्भावमां पीळो (अने उपाधि रहित होतां शुद्ध उज्ज्वळ) जणाय छे तेवी रीते आ
आत्मा क्रमथी शुभ, अशुभ अने शुद्ध उपयोगरूप त्रण परिणामरूपे परिणमे छे. मिथ्यात्व,
विषय, कषायादिना अवलंबनथी तो आत्मा पाप बांधे छे. अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय
गाथा – ७१
अन्वयार्थ : — [शुभपरिणामेन ] दान पूजादि शुभ परिणामोंसे [धर्मः ] पुण्यरूप
व्यवहारधर्म [परं ] मुख्यतासे [भवति ] होता है, [अशुभेन ] विषय कषायादि अशुभ परिणामोंसे
[अधर्मः ] पाप होता है, [अपि ] और [एताभ्यां ] इन [द्वाभ्याम् ] दोनोंसे [विवर्जितः ] रहित
[शुद्धः ] मिथ्यात्व रागादि रहित शुद्ध परिणाम अथवा परिणामधारी पुरुष [कर्म ] ज्ञानावरणादि
कर्मको [न ] नहीं [बध्नाति ] बाँधता ।
भावार्थ : — जैसे स्फ टिकमणि शुद्ध उज्ज्वल है, उसके जो काला डंक लगावें, तो
काला मालूम होता है, और पीला डंक लगावें तो पीला भासता है, और यदि कुछ भी
न लगावें, तो शुद्ध स्फ टिक ही है, उसी तरह यह आत्मा क्रमसे अशुभ, शुभ, शुद्ध इन
परिणामोंसे परिणत होता है । उनमेंसे मिथ्यात्व और विषय कषायादि अशुभके अवलम्बन
(सहायता) से तो पापको ही बाँधता है, उसके फलसे नरक निगोदादिके दुःखोंको भोगता
है और अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु इन पाँच परमेष्ठियोंके गुणस्मरण और