अधिकार-२ः दोहा-७१ ]परमात्मप्रकाशः [ ३३९
बध्नाति । अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसाधुगुणस्मरणदानपूजादिना संसारस्थितिच्छेदपूर्वकं
तीर्थंकरनामकर्मादि-विशिष्टगुणपुण्यमनीहितवृत्त्या बध्नाति । शुद्धात्मावलम्बनेन शुद्धोपयोगेन तु
केवलज्ञानाद्य-नन्तगुणरूपं मोक्षं च लभते इति । अत्रोपयोगत्रयमध्ये मुख्यवृत्त्या शुद्धोपयोग
एवोपादेय इत्याभिप्रायः ।।७१।। एवमेकचत्वारिंशत्सूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये सूत्रपञ्चकेन शुद्धोपयोग-
व्याख्यानमुख्यत्वेन प्रथमान्तरस्थलं गतम् ।।
अत ऊर्ध्वं तस्मिन्नेव महास्थलमध्ये पञ्चदशसूत्रपर्यन्तं वीतरागस्वसंवेदन ज्ञानीमुख्यत्वेन
व्याख्यानं क्रियते । तद्यथा —
१९९) दाणिं लब्भइ भोउ पर इंदत्तणु वि तवेण ।
जम्मण-मरण-विवज्जियउ पउ लब्भइ णाणेण ।।७२।।
अने साधुना गुणस्मरण अने दानपूजादिथी संसारनी स्थितिना छेदपूर्वक तीर्थंकरनामकर्मादिथी
मांडीने विशिष्ट गुणरूप पुण्यप्रकृतिओने अनीहितवृत्तिथी बांधे छे अने शुद्ध आत्माना
अवलंबनरूप शुद्ध-उपयोगथी तो केवळज्ञानादि अनंतगुणरूप मोक्षने पामे छे.
अहीं, त्रण प्रकारना उपयोगमांथी मुख्यपणे शुद्ध-उपयोग ज उपादेय छे, एवो अभिप्राय
छे. ७१.
ए प्रमाणे एकतालीस सूत्रोना महास्थळमां पांच गाथासूत्रथी शुद्धोपयोगना व्याख्याननी
मुख्यताथी प्रथम अन्तरस्थळ समाप्त थयुं.
आनी पछी ते ज महास्थळमां पंदर सूत्र सुधी वीतरागस्वसंवेदनरूप ज्ञाननी मुख्यताथी
व्याख्यान करे छे, ते आ प्रमाणेः —
दानपूजादि शुभ क्रियाओंसे संसारकी स्थितिका छेदनेवाला जो तीर्थंकरनामकर्म उसको आदि
ले विशिष्ट गुणरूप पुण्यप्रकृतियोंको अवाँछीक वृत्तिसे बाँधता है । तथा केवल शुद्धात्माके
अवलम्बनरूप शुद्धोपयोगसे उसी भवमें केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप मोक्षको पाता है । इन
तीन प्रकारके उपयोगोंमेंसे सर्वथा उपादेय तो शुद्धोपयोग ही है, अन्य नहीं है । और शुभ,
अशुभ इन दोनोंमेंसे अशुभ तो सब प्रकारसे निषिद्ध है, नरक निगोदका कारण है, किसी
तरह उपादेय नहीं है – हेय है, तथा शुभोपयोग प्रथम अवस्थामें उपादेय है, और परम
अवस्थामें उपादेय नहीं है, हेय है ।।७१।।
इसप्रकार इकतालीस दोहोंके महास्थलमें पाँच दोहोंमें शुद्धोपयोगका व्याख्यान किया ।
आगे पन्द्रह दोहोंमें वीतरागस्वसंवेदनज्ञानकी मुख्यतासे व्याख्यान करते हैं —