Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration).

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३४० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-७२
दानेन लभ्यते भोगः परं इन्द्रत्वमपि तपसा
जन्ममरणविवर्जितं पदं लभ्यते ज्ञानेन ।।७२।।
दाणिं इत्यादि दाणिं लब्भइ भोउ पर दानेन लभ्यते पञ्चेन्द्रियभोगः परं नियमेन
इंदत्तणु वि तवेण इन्द्रत्वमपि तपसा लभ्यते जम्मण-मरण-विवज्जियउ जन्ममरणविवर्जितं पउ
पदं स्थानं लब्भइ लभ्यते प्राप्यते केन णाणेण वीतरागस्वसंवेदनज्ञानेनेति तथाहि
आहाराभयभैषज्यशास्त्रदानेन सम्यक्त्वरहितेन भोगो लभ्यते सम्यक्त्वसहितेन तु यद्यपि
परंपरया निर्वाणं लभ्यते तथापि विविधाभ्युदयरूपः पञ्चेन्द्रियभोग एव सम्यक्त्वसहितेन
तपसा तु यद्यपि निर्वाणं लभ्यते तथापि देवेन्द्रचक्रवर्त्यादिविभूतिपूर्वकेणैव वीतरागस्वसंवेदन-
सम्यग्ज्ञानेन सविकल्पेन यद्यपि देवेन्द्रचक्रवर्त्यादिविभूतिविशेषो भवति तथापि निर्विकल्पेन मोक्ष
भावार्थसम्यक्त्वरहितना आहारदान, अभयदान औषधदान अने शास्त्रदानथी
भोग मळे छे. अने सम्यक्त्वसहितना ए चार दानथीजोके परंपराए निर्वाण मळे छे तोपण
विविध अभ्युदयरूप पंचेन्द्रियना भोग ज मळे छे.
अने सम्यक्त्व सहितना तपथी जोके निर्वाण मळे छे तोपण देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि
विभूतिपूर्वक ज मोक्ष मळे छे.
वीतराग स्वसंवेदनसम्यग्ज्ञानथी जोके सविकल्पने कारणे देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि
विभूतिविशेषनी प्राप्ति थाय छे तोपण निर्विकल्पने कारणे मोक्षनी ज प्राप्ति थाय छे.
गाथा७२
अन्वयार्थ :[दानेन ] दानसे [परं ] नियम करके [भोगः ] पाँच इंद्रियोंके भोग
[लभ्यते ] प्राप्त होते हैं, [अपि ] और [तपसा ] तपसे [इंद्रत्वम् ] इंद्रपद मिलता है, तथा
[ज्ञानेन ] वीतरागस्वसंवेदनज्ञानसे [जन्ममरणविवर्जितं ] जन्म-जरा-मरणसे रहित [पदं ] जो
मोक्ष
पद वह [लभ्यते ] मिलता है
भावार्थ :आहार, अभय, औषध और शास्त्र इन चार तरहके दानोंको यदि सम्यक्त्व
रहित करे, तो भोगभूमिके सुख पाता है, तथा सम्यक्त्व सहित दान करे, तो परम्पराय मोक्ष
पाता है
यद्यपि प्रथम अवस्थामें देवेन्द्र चक्रवर्ती आदिकी विभूति भी पाता है, तो भी
निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानकर मोक्ष ही है यहाँ प्रभाकरभट्टने प्रश्न किया, कि हे भगवन्, जो
ज्ञानमात्रसे ही मोक्ष होता है, तो सांख्यादिक भी ऐसा ही कहते हैं, कि ज्ञानसे ही मोक्ष है, उनको
क्यों दूषण देते हो ? तब श्रीगुरुने कहा
इस जिनशासनमें वीतरागनिर्विकल्प स्वसंवेदन