३४२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-७३
देवः निरञ्जन एवं भणति ज्ञानेन मोक्षो न भ्रान्तिः ।
ज्ञानविहीना जीवाः चिरं संसारं भ्रमन्ति ।।७३।।
देउ इत्यादि देउ देवः किंविशिष्टः । णिरंजणु निरञ्जनः अनन्तज्ञानादिगुण-
सहितोऽष्टादशदोषरहितश्च इउं भणइ एवं भणति । एवं किम् । णाणिं मुक्खु वीतराग-
निर्विकल्पस्वसंवेदनरूपेण सम्यग्ज्ञानेन मोक्षो भवति । ण भंति न भ्रांतिः संदेहो नास्ति ।
णाण-विहीणा जीवडा पूर्वोक्त स्वसंवेदनज्ञानेन विहीना जीवा चिरु संसारु भमंति चिरं बहुतरं
कालं संसारं परिभ्रमन्ति इति । अत्र वीतरागस्वसंवेदनज्ञानमध्ये यद्यपि सम्यक्त्वादित्रयमस्ति
तथापि सम्यग्ज्ञानस्यैव मुख्यता । विवक्षितो मुख्य इति वचनादिति भावार्थः ।।७३।।
अथ पुनरपि तमेवार्थं द्रष्टान्तदार्ष्टान्तिकाभ्यां निश्चिनोति —
भावार्थः — अनंतज्ञानादि गुण सहित अने अढार दोष रहित जे सर्वज्ञवीतरागदेव
छे तेओ एम कहे छे के वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनरूप सम्यग्ज्ञानथी मोक्ष छे, तेमां संदेह
नथी अने पूर्वोक्त स्वसंवेदनरूप सम्यग्ज्ञान वगरना जीवो घणा ज काळ सुधी संसारमां भटके
छे.
अहीं, वीतरागस्वसंवेदनरूप सम्यग्ज्ञानमां जोके सम्यक्त्वादि त्रणेय छे, तोपण
सम्यग्ज्ञाननी ज मुख्यता छे केमके ‘विवक्षित ते मुख्य छे, (जेनुं कथन करवामां आवे ते मुख्य
छे) एवुं आगमनुं वचन छे. ७३.
हवे, फरी वार ते ज अर्थने द्रष्टांत अने द्रष्टान्तिक वडे नक्की करे छेः —
गाथा – ७३
अन्वयार्थ : — [निरंजनः ] अनन्त ज्ञानादि गुण सहित, और अठारह दोष रहित, जो
[देवः ] सर्वज्ञ वीतरागदेव हैं, वे [एवं ] ऐसा [भणति ] कहते हैं, कि [ज्ञानेन ]
वीतरागनिर्विकल्प स्वसंवेदनरूप सम्यग्ज्ञान से ही [मोक्षः ] मोक्ष है, [न भ्रांतिः ] इसमें संदेह
नहीं है । और [ज्ञानविहीनाः ] स्वसंवेदनज्ञानकर रहित जो [जीवाः ] जीव हैं, वे [चिरं ] बहुत
काल तक [संसारं ] संसारमें [भ्रमंति ] भटकते हैं ।
भावार्थ : — यहाँ वीतरागस्वसंवेदनज्ञानमें यद्यपि सम्यक्त्वादि तीनों हैं, तो भी मुख्यता
सम्यग्ज्ञानकी ही है । क्योंकि श्रीजिनवचनमें ऐसा कथन किया है, कि जिसका कथन किया
जावे, वह मुख्य होता है, अन्य गौण होता है, ऐसा जानना ।।७३।।
आगे फि र भी इसी कथनको दृष्टांत और दार्ष्टांतसे निश्चित करते हैं —