अधिकार-२ः दोहा-७५ ]परमात्मप्रकाशः [ ३४५
द्रष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षावासितचित्तेन रूपलावण्यसौभाग्यबलदेववासुदेवकामदेवेन्द्रादिपदप्राप्तिरूप-
भावि-भोगाशकरणं यन्निदानबन्धस्तदेव शल्यं तत्प्रभृतिसमस्तमनोरथविकल्पज्वालावलीरहितत्वेन
विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजात्मावबोधो निजबोधः तस्मान्निजबोधाद्बाह्यम् । णाणु वि कज्जु ण
तेण शास्त्रादिजनितं ज्ञानमपि यत्तेन कार्यं नास्ति । कस्मादिति चेत् । दुक्खहं कारणु दुःखस्य
कारणं जेण येन कारणेन तउ वीतरागस्वसंवेदनरहितं तपः जीवहं जीवस्य होइ भवति खणेण
क्षणमात्रेण कालेनेति । अत्र यद्यपि शास्त्रजनितं ज्ञानं स्वशुद्धात्मपरिज्ञानरहितं तपश्चरणं च
मुख्यवृत्त्या पुण्यकारणं भवति तथापि मुक्ति कारणं न भवतीत्यभिप्रायः ।।७५।।
भोगोनी आकांक्षाथी वासित चित्तथी रूपलावण्यसौभाग्यरूप बळदेव, वासुदेव, कामदेव अने
इन्द्रादिना पदनी प्राप्तिरूप भावी भोगोनी जे वांछा करवी ते निदानबंध छे, ते ज शल्य छे. ते
शल्य आदिथी मांडीने समस्त मनोरथना विकल्पनी ज्वाळावलीथी रहितपणे विशुद्धज्ञान,
विशुद्धदर्शन जेनो स्वभाव छे एवा निज आत्मानो अवबोध ते निजबोध छे. ते निजबोधथी बाह्य
शास्त्रादिजनित जे ज्ञान छे तेनाथी कांई पण कार्य नथी, कारण के वीतरागस्वसंवेदनरहित तप
जीवने क्षणमात्रमां ज – तत्काळ ज – दुःखनुं कारण थाय छे.
अहीं, जोके शास्त्रजनित ज्ञान अने पोताना शुद्ध आत्माना ज्ञानथी रहित तपश्चरण
मुख्यपणे पुण्यनुं कारण छे तोपण मुक्तिनुं कारण नथी, एवो अभिप्राय छे. ७५.
मनोरथोंके विकल्पजालरूपी अग्निकी ज्वालाओंसे रहित जो निज सम्यग्ज्ञान है, उससे रहित
बाह्य पदार्थोंका शास्त्र द्वारा ज्ञान है, उससे कुछ काम नहीं । कार्य तो एक निज आत्माके
जाननेसे है । यहाँ शिष्यने प्रश्न किया, कि निदानबंध रहित आत्मज्ञान तुमने बतलाया, उसमें
निदानबंध किसे कहते हैं ? उसका समाधान — जो देखे, सुने और भोगे हुए इन्द्रियोंके भोगोंसे
जिसका चित्त रंग रहा है, ऐसा अज्ञानी जीव रूप – लावण्य सौभाग्यका अभिलाषी वासुदेव
चक्रवर्ती – पदके भोगोंकी वाँछा करे; दान, पूजा, तपश्चरणादिकर भोगोंकी अभिलाषा करे,
वह निदानबंध है, सो यह बड़ी शल्य (काँटा) है । इस शल्यसे रहित जो आत्मज्ञान उसके
बिना शब्द – शास्त्रादिका ज्ञान मोक्षका कारण नहीं है । क्योंकि वीतरागस्वसंवेदनज्ञान रहित तप
भी दुःखका कारण है । ज्ञान रहित तपसे जो संसारकी सम्पदायें मिलती हैं, वे क्षणभंगुर हैं ।
इसलिए यह निश्चय हुआ, कि आत्मज्ञानसे रहित जो शास्त्रका ज्ञान और तपश्चरणादि हैं,
उनमें मुख्यताकर पुण्यका बंध होता है । उस पुण्यके प्रभावसे जगत्की विभूति पाता है, वह
क्षणभंगुर है । इसलिए अज्ञानियोंका तप और श्रुत यद्यपि पुण्यका कारण है, तो भी मोक्षका
कारण नहीं है ।।७५।।