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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-७६
अथ येन मिथ्यात्वरागादिवृद्धिर्भवति तदात्मज्ञानं न भवतीति निरूपयति —
२०३) तं णिय-णाणु जि होइ ण वि जेण पवड्ढइ राउ ।
दिणयर-किरणहँ पुरउ जिय किं विलसइ तम-राउ ।।७६।।
तत् निजज्ञानमेव भवति नापि येन प्रवर्धते रागः ।
दिनकरकिरणानां पुरतः जीव किं विलसति तमोरागः ।।७६।।
तं इत्यादि । तं तत् णिय-णाणु जि होइ ण वि निजज्ञानमेव न भवति
वीतरागनित्यानन्दैकस्वभावनिजपरमात्मतत्त्वपरिज्ञानमेव न भवति । येन ज्ञानेन किं भवति । जेण
पवड्ढइ येन प्रवर्धते । कोऽसौ । राउ शुद्धात्मभावनासमुत्पन्नवीतरागपरमानन्दप्रतिबन्धक-
पञ्चेन्द्रियविषयाभिलाषरागः । अत्र द्रष्टान्तमाह । दिणयर-किरणहं पुरउ जिय दिनकरकिरणानां
हवे, जेना वडे मिथ्यात्व, रागादिनी वृद्धि थाय छे ते आत्मज्ञान नथी, एम कहे छेः —
भावार्थः — जे ज्ञान वडे शुद्धात्मभावनाथी उत्पन्न एवा वीतराग परमानंदना
प्रतिबंधक पांच इन्द्रियोना विषयोनी अभिलाषारूप रागनी वृद्धि थाय ते निज ज्ञान नथी.
वीतराग नित्यानंद ज जेनो एक स्वभाव छे एवा निज परमात्मतत्त्वनुं ज्ञान ज नथी. अहीं
द्रष्टांत कहे छे. सूर्यना किरणोनी सामे शुं अंधकारनो फेलाव शोभे छे? नथी शोभतो.
आगे जिससे मिथ्यात्व रागादिककी वृद्धि हो, वह आत्मज्ञान नहीं है, ऐसा निरूपण
करते हैं —
गाथा – ७६
अन्वयार्थ : — [जीव ] हे जीव, [तत् ] वह [निजज्ञानम् एव ] वीतराग नित्यानंद
अखंडस्वभाव परमात्मतत्त्वका परिज्ञान ही [नापि ] नहीं [भवति ] है, [येन ] जिससे [रागः ]
परद्रव्यमें प्रीति [प्रवर्धते ] बढ़े, [दिनकरकिरणानां पुरतः ] सूर्यकी किरणोंके आगे
[तमोरागः ] अन्धकारका फै लाव [किं विलसति ] कैसे शोभायमान हो सकता है ? नहीं हो
सकता ।
भावार्थ : — शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न जो वीतराग परम आनंद उसके शत्रु
पंचेन्द्रियोंके विषयोंकी अभिलाषी जिसमें हो, वह निज (आत्म) ज्ञान नहीं है, अज्ञान ही है ।
जिस जगह वीतरागभाव है, वही सम्यग्ज्ञान है । इसी बातको दृष्टांत देकर दृढ़ करते हैं, सो सुनो ।
हे जीव, जैसे सूर्यके प्रकाशके आगे अन्धेरा नहीं शोभा देता, वैसे ही आत्मज्ञानमें विषयोंकी