भावार्थः — (१) अनुपचरित असद्भूत व्यवहारथी जेनो संबंध छे एवां द्रव्यकर्म
अने नोकर्मथी रहित तेम ज अशुद्ध निश्चयनयथी जेनो संबंध छे एवा मतिज्ञानादि विभावगुण
अने नरनारकादि विभावपर्याय रहित चिदानंद ज जेनो एक स्वभाव छे एवुं जे शुद्धात्मतत्त्व
छे ते ज भूतार्थ छे, परमार्थरूप ‘समयसार’ शब्दथी वाच्य छे, सर्व प्रकारे उपादेयभूत छे अने
तेनाथी जे अन्य छे ते हेय छे. एवी चल, मलिन, अवगाढ रहितपणे निश्चयश्रद्धानबुद्धि ते
सम्यक्त्व छे, तेमां आचरण परिणमन ते दर्शनाचार छे.
(२) तेमां ज संशय, विपर्यास, अनध्यवसाय रहितपणे स्वसंवेदनज्ञानरूपे ग्राहकबुद्धि
ते सम्यक्ज्ञान छे, तेमां आचरण – परिणमन – ते ज्ञानाचार छे.
(३) तेमां ज शुभाशुभ संकल्पविकल्परहितपणे नित्यानंदमय सुखरसना आस्वादरूप
स्थिर (निश्चल) अनुभव ते सम्यक्चारित्र छे, तेमां आचरण-परिणमन ते चारित्राचार छे.
जे परमप्पु णियंति मुणि ये केचन परमात्मानं निर्गच्छन्ति स्वसंवेदनज्ञानेन जानन्ति
मुनयस्तपोधनाः । किं कृत्वा पूर्वम् । परमसमाहि धरेवि रागादिविकल्परहितं परमसमाधिं धृत्वा ।
केन कारणेन । परमाणंदह कारणिण निर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नसदानन्दपरमसमरसीभावसुख-
रसास्वादनिमित्तेन तिण्णि वि ते वि णवेवि त्रीनप्याचार्योपाध्यायसाधून् नत्वा नमस्कृत्येत्यर्थः ।
अतो विशेषः । अनुपचरितासद्भूतव्यवहारसंबन्धः द्रव्यकर्मनोकर्मरहितं तथैवाशुद्धनिश्चयसंबन्धः
मतिज्ञानादिविभावगुणनरनारकादिविभावपर्यायरहितं च यच्चिदानन्दैकस्वभावं शुद्धात्मतत्त्वं तदेव
भूतार्थं परमार्थरूपसमयसारशब्दवाच्यं सर्वप्रकारोपादेयभूतं तस्माच्च यदन्यत्तद्धेयमिति ।
अधिकार-१ः दोहा-७ ]परमात्मप्रकाशः [ २३
भावार्थ : — अनुपचरित अर्थात् जो उपचरित नहीं है, इसीसे अनादि संबंध है, परंतु
असद्भूत (मिथ्या) है, ऐसा व्यवहारनयकर द्रव्यकर्म, नोकर्मका संबंध होता है, उससे रहित
और अशुद्ध निश्चयनयकर रागादिका संबंध है, उससे तथा मतिज्ञानादि विभावगुणके संबंधसे
रहित और नर-नारकादि चतुर्गतिरूप विभावपर्यायोंसे रहित ऐसा जो चिदानंदचिद्रूप एक
अखंडस्वभाव शुद्धात्मतत्त्व है वही सत्य है । उसीको परमार्थरूप समयसार कहना चाहिए । वही
सब प्रकार आराधने योग्य है । उससे जुदी जो परवस्तु है वह सब त्याज्य है । ऐसी दृढ़ प्रतीति
चंचलता रहित निर्मल अवगाढ़ परम श्रद्धा है उसको सम्यक्त्व कहते हैं, उसका जो आचरण
अर्थात् उस स्वरूप परिणमन वह दर्शनाचार कहा जाता है और उसी निजस्वरूपमें संशय
-विमोह-विभ्रम-रहित जो स्वसंवेदनज्ञानरूप ग्राहकबुद्धि वह सम्यग्ज्ञान हुआ, उसका जो
आचरण अर्थात् उसरूप परिणमन वह ज्ञानाचार है, उसी शुद्ध स्वरूपमें शुभ-अशुभ समस्त
संकल्प रहित जो नित्यानंदमय निजरसका आस्वाद, निश्चल अनुभव, वह सम्यक्चारित्र है,