सम्यक्अनुष्ठानरूप अभेद रत्नत्रयात्मक जे मोक्षमार्ग छे एवा मोक्ष अने मोक्षमार्गने जेमणे
प्रकाश्या छे तेमने हुं नमस्कार करुं छुं. अहीं अर्हतगुणस्वरूप जे स्वशुद्धात्मस्वरूप छे ते ज
उपादेय छे एवो भावार्थ छे. ६.
त्यार पछी भेदाभेदरत्नत्रयना आराधक आचार्य उपाध्याय अने साधुने हुं नमस्कार करुं
छुंः —
शुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपाभेदरत्नत्रयात्मको मोक्षमार्गश्च, तानहं वन्दे ।
अत्रार्हद्गुणस्वरूपस्वशुद्धात्मस्वरूपमेवोपादेयमिति भावार्थः ।।६।।
अथानन्तरं भेदाभेदरत्नत्रयाराधकानाचार्योपाध्यायसाधून्नमस्करोमि —
७) जे परमप्पु णियंति मुणि परम-समाहि धरेवि ।
परमाणंदह कारणिण तिण्णि वि ते वि णवेवि ।।७।।
ये परमात्मानं पश्यन्ति मुनयः परमसमाधिं धृत्वा ।
परमानन्दस्य कारणेन त्रीनपि तानपि नत्वा ।।७।।
२२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-७
केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप मोक्ष और जो शुद्धात्माका यथार्थ श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप
अभेदरत्नत्रय वही हुआ मोक्षमार्ग ऐसे मोक्ष और मोक्षमार्गको भी प्रगट किया, उनको मैं
नमस्कार करता हूँ । इस व्याख्यानमें अरहंतदेवके केवलज्ञानादि गुणस्वरूप जो शुद्धात्मस्वरूप
है, वही आराधने योग्य है, यह भावार्थ जानना ।।६।।
आगे भेदाभेदरत्नत्रयके आराधक जो आचार्य, उपाध्याय और साधु हैं, उनको मैं
नमस्कार करता हूँ —
गाथा – ७
अन्वयार्थ : — [ये मुनय: ] जो मुनि [परमसमाधिं ] परमसमाधिको [धृत्वा ] धारण
करके सम्यग्ज्ञानकर [परमात्मानं ] परमात्माको [पश्यन्ति ] देखते हैं । किस लिए
[परमानंदस्य कारणेन ] रागादि विकल्प रहित परमसमाधिसे उत्पन्न हुए परमसुखके रसका
अनुभव करनेके लिए [तान् अपि ] उन [त्रीन् अपि ] तीनों आचार्य, उपाध्याय, साधुओंको
भी [नत्वा ] मैं नमस्कार करके परमात्मप्रकाशका व्याख्यान करता हूँ ।