Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration).

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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-८३
जो ण हणेइ वियप्पु यः कर्ता शास्त्राभ्यासफलभूतस्य रागादिविकल्परहितस्य निजशुद्धात्मस्व-
भावस्य प्रतिपक्षभूतं मिथ्यात्वरागादिविकल्पं न हन्ति
न केवलं विकल्पं न हन्ति देहि वसंतु
वि देहे वसन्तमपि णिम्मलउ निर्मलं कर्ममलरहितं णवि मण्णइ नैव मन्यते न श्रद्धत्ते कम्
परमप्पु निजपरमात्मानमिति अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञात्वा त्रिगुप्तसमाधिं कृत्वा च स्वयं भावनीयम्
यदा तु त्रिगुप्तिगुप्तसमाधिं कर्तुं नायाति तदा विषयकषायवञ्चनार्थं शुद्धात्मभावनास्मरण-
द्रढीकरणार्थं च बहिर्विषये व्यवहारज्ञानवृद्धयर्थं च परेषां कथनीयं किंतु तथापि
परप्रतिपादनव्याजेन मुख्यवृत्त्या स्वकीयजीव एव संबोधनीयः कथमिति चेत् इदमनुपपन्नमिदं
व्याख्यानं न भवति मदीयमनसि यदि समीचीनं न प्रतिभाति तर्हि त्वमेव स्वयं किं न
भावयतीति तात्पर्यम्
।।८३।।
विकल्पथी रहित निजशुद्धात्मस्वभावनी प्राप्ति छे एवा निजशुद्धात्मस्वभावथी प्रतिपक्षभूत
मिथ्यात्व, रागादि विकल्पनो नाश करतो नथी. मात्र विकल्पनो नाश करतो नथी एटलुं ज
नहि, पण देहमां रहेवा छतां पण निर्मळ-कर्ममळ रहित-निज परमात्माने श्रद्धतो नथी, ते
जड
मूर्ख छे.
अहीं, आ व्याख्यान जाणीने अने त्रणगुप्तियुक्त समाधि करीने पोताने ज भाववो,
अने ज्यारे त्रण गुप्तिथी गुप्त समाधि करवानुं न बने त्यारे विषयकषायनी वंचना अर्थे
(विषय कषायने छोडवा माटे) अने शुद्ध आत्मानी भावनानुं स्मरण द्रढ करवा माटे अने
बहिर्विषयमां व्यवहारज्ञाननी वृद्धि अर्थे बीजा जीवोने धर्मोपदेश आपवो, तेम छतां पण
परने उपदेशवाना बहाना द्वारा मुख्यपणे स्वकीय जीव ज संबोधवो. केवी रीते? ते आ
प्रमाणेः
आ योग्य नथी; आ गाथानुं व्याख्यान मारा मनमां वस्युं नथी; जो समीचीन
पणे (बराबर सारी रीते, योग्य रीते) प्रतिभासतुं नथी, तो तमे पण स्वयं तेनो विचार
करो. आवुं तात्पर्य छे. ८३.
और निज शुद्धात्माको ध्यावना इसलिए इस व्याख्यानको जानकर तीन गुप्तिमें अचल हो
परमसमाधिमें आरूढ़ होके निजस्वरूपका ध्यान करना लेकिन जबतक तीन गुप्तियाँ न हों,
परमसमाधि न आवे, (हो सके) तबतक विषय कषायोंके हटानेके लिये शुद्धात्मस्मरण
भावनाके दृढीकरण हेतु परजीवोंको धर्मोपदेश देना, उसमें भी परके उपदेशके बहानेसे
मुख्यताकर अपना जीव हीको संबोधना
वह इस तरह है, कि परको उपदेश देते अपनेको
समझावे जो मार्ग दूसरोंको छुड़ावे, वह आप कैसे करे इससे मुख्य संबोधन अपना ही है
परजीवोंको ऐसा ही उपदेश है, जो यह बात मेरे मनमें अच्छी नहीं लगती, तो तुमको भी भली
नहीं लगती होगी, तुम भी अपने मनमें विचार करो
।।८३।।