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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-८४
संवेदनरूपः स एव बोधो ग्राह्यो न चान्यः । तेनानुबोधेन विना शास्त्रे पठितेऽपि मूढो
भवतीति । अत्र यः कोऽपि परमात्मबोधजनकमल्पशास्त्रं ज्ञात्वापि वीतरागभावनां करोति
स सिद्धयतीति । तथा चोक्त म् — ‘‘वीरा वेरग्गपरा थोवं पि हु सिक्खिऊण सिज्झंति । ण
हु सिज्झंति विरागेण विणा पढिदेसु वि सव्वसत्थेसु ।।’’ परं किन्तु — ‘‘अक्खरडा जोयंतु
ठिउ अप्पि ण दिण्णउ चित्तु । कणविरउ पलालु जिमु पर संगहिउ बहुत्तु ।।’’ इत्यादि
पाठमात्रं गृहीत्वा परेषां बहुशास्त्रज्ञानिनां दूषणा न कर्तव्या । तैर्बहुश्रुतैरप्यन्येषा-
मल्पश्रुततपोधनानां दूषणा न कर्तव्या । कस्मादिति चेत् । दूषणे कृते सति परस्परं
उत्पन्न जे वीतरागस्वसंवेदनरूप बोध छे ते ज बोध ग्राह्य छे, पण अन्य (बीजो बोध)
नहि. ते अनुबोध विना (वीतराग स्वसंवेदनरूप ज्ञान विना) शास्त्र भण्यो होवा छतां पण
मूढ छे.
अहीं, जे कोई पण परमात्मबोधना उत्पन्न करनार अल्प शास्त्र जाणीने पण
वीतराग भावना करे छे ते सिद्ध थाय छे. कह्युं पण छे के — ‘‘वीरा वेरग्गपरा थोवं पि हु
सिक्खिऊण सिज्झंति । ण हु सिज्झंति विरागेण विणा पढिदेसु वि सव्वसत्थेसु’’ (अर्थः — वैराग्यमां
तत्पर वीरो थोडाक शास्त्रने शीखीने पण शुद्ध थाय छे पण सर्व शास्त्रो भणवा छतां पण
जीव वैराग्य विना सिद्धि पामतो नथी) वळी कह्युं छे के ‘‘अक्खरडा जोयंतु ठिउ अप्पि ण दिण्णउ
चित्तु । कणविरउ पलालु जिमु पर संगहिउ बहुत्तु ।। (दोहा पाहुड ८४) (अर्थः — जे शास्त्रोना
अक्षरोने ज जुए छे पण चित्तने पोताना आत्मामां स्थिर करतो नथी तो मानो के तेणे
अनाजना कणोथी रहित घणुं पराळ निरर्थक संग्रह करवा जेवुं कर्युं) इत्यादि पाठ मात्र ग्रहीने
अने बहु शास्त्रना जाणनाराओने दोष न देवो. ते बहुश्रुतज्ञोए पण अन्य अल्पश्रुतज्ञ
अध्यात्म - शास्त्रोंमें प्रशंसा की गयी है । इसलिये स्वसंवेदन ज्ञानके बिना शास्त्रोंके पढ़े हुए भी
मूर्ख हैं । और जो कोई परमात्मज्ञानके उत्पन्न करनेवाले (छोटे) थोड़े शास्त्रोंको भी जानकर
वीतराग स्वसंवेदनज्ञानकी भावना करते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं । ऐसा ही कथन ग्रन्थोंमें
हरएक जगह कहा है, कि वैराग्यमें लगे हुए जो मोहशत्रुको जीतनेवाले हैं, वे थोड़े शास्त्रोंको
ही पढ़कर सुधर जाते हैं — मुक्त हो जाते हैं, और वैराग्यके बिना सब शास्त्रोंको पढ़ते हुए भी
मुक्त नहीं होते । यह निश्चय जानना परंतु यह कथन अपेक्षासे है । इस बहानेसे शास्त्र
पढ़नेका अभ्यास नहीं छोड़ना, और जो विशेष शास्त्रके पाठी हैं, उनको दूषण न देना । जो
शास्त्रके अक्षर बता रहा है, और आत्मामें चित्त नहीं लगाया वह ऐसे जानना कि जैसे किसीने
कण रहित बहुत भूसेका ढेर कर लिया हो, वह किसी कामका नहीं है । इत्यादि पीठिकामात्र
सुनकर जो विशेष शास्त्रज्ञ हैं, उनकी निंदा नहीं करनी, और जो बहुश्रुत हैं, उनको भी अल्प
शास्त्रज्ञोंकी निंदा नहीं करनी चाहिए । क्योंकि परके दोष ग्रहण करनेसे राग-द्वेषकी उत्पत्ति