विनीतवनितादिकं मोहभयेन त्यक्त्वा जिनदीक्षां गृहीत्वा च शुद्धबुद्धैकस्वभावनिजशुद्धात्मतत्त्व-
सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनीरोगत्वप्रतिपक्षभूतमजीर्णरोगस्थानीयं मोहमुत्पाद्यात्मनः
पर्यायशरीरसहकारिभूतमन्नपानसंयमशौचज्ञानोपकरणतृणमयप्रावरणादिकं किमपि गृह्णाति तथापि
वगेरेने (अजीर्णरोगस्थानीय) मोहना भयथी छोडीने अने जिनदीक्षा ग्रहीने कांई पण
औषधस्थानीय उपकरणादिने ग्रहीने शुद्ध-बुद्ध ज जेनो एक स्वभाव छे एवा निजशुद्धात्मतत्त्वनां
सम्यक् श्रद्धान, सम्यक् ज्ञान अने सम्यग् अनुष्ठानरूप निरोगपणाना प्रतिपक्षभूत
अजीर्णरोगस्थानीय (अजीर्ण रोग समान) पोताने मोह उपजावे छे. पण ज्ञानी तेवो नथी.
भावसंयमना रक्षणार्थे विशिष्ट संहननादि शक्तिनो अभाव होतां, जो के तपनुं साधन जे शरीर
तेना रक्षाना सहकारीभूत अन्न, जळ, संयम, शौच, ज्ञानना उपकरणो कमंडल, पींछी अने शास्त्रो
लिये वैराग्य धारण करके औषधि समान जो उपकरणादि उनको ही ग्रहण करके उन्हींका
अनुरागी (प्रेमी) होता है, उनकी बुद्धिसे सुख मानता है, वह औषधिका ही अजीर्ण करता है
शुद्धोपयोगरूप संयमके धारक हैं, उनके शुद्धात्माकी अनुभूतिसे विपरीत सब ही परिग्रह त्यागने
योग्य है
रक्षाके निमित्त हीन संहननके होनेपर उत्कृष्ट शक्तिके अभावसे यद्यपि तपका साधन शरीरकी
रक्षाके निमित्त अन्न जलका ग्रहण होता है, उस अन्न जलके लेनेसे मल
पुस्तक इनको ग्रहण करते हैं, तो भी इनमें ममता नहीं है, प्रयोजनमात्र प्रथम अवस्थामें धारते