Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration).

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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-८९
जिह्वालाम्पटयेनौषधेनापि अजीर्णं करोत्यज्ञानी इति, न च ज्ञानीति, तथा कोऽपि तपोधनो
विनीतवनितादिकं मोहभयेन त्यक्त्वा जिनदीक्षां गृहीत्वा च शुद्धबुद्धैकस्वभावनिजशुद्धात्मतत्त्व-
सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनीरोगत्वप्रतिपक्षभूतमजीर्णरोगस्थानीयं मोहमुत्पाद्यात्मनः
किं कृत्वा
किमप्यौषधस्थानीयमुपकरणादिकं गृहीत्वा कोऽसावज्ञानी न तु ज्ञानीति इदमत्र तात्पर्यम्
परमोपेक्षासंयमधरेण शुद्धात्मानुभूतिप्रतिपक्षभूतः सर्वोऽपि तावत्परिग्रहस्त्याज्यः परमोपेक्षासंयमा-
भावे तु वीतरागशुद्धात्मानुभूतिभावसंयमरक्षणार्थं विशिष्टसंहननादिशक्त्यभावे सति यद्यपि तपः-
पर्यायशरीरसहकारिभूतमन्नपानसंयमशौचज्ञानोपकरणतृणमयप्रावरणादिकं किमपि गृह्णाति तथापि
औषध लईने) औषधथी-ज अजीर्ण करे छे ते अज्ञानी छे. तेवी रीते कोई तपोधन विनीत, वनिता
वगेरेने (अजीर्णरोगस्थानीय) मोहना भयथी छोडीने अने जिनदीक्षा ग्रहीने कांई पण
औषधस्थानीय उपकरणादिने ग्रहीने शुद्ध-बुद्ध ज जेनो एक स्वभाव छे एवा निजशुद्धात्मतत्त्वनां
सम्यक् श्रद्धान, सम्यक् ज्ञान अने सम्यग् अनुष्ठानरूप निरोगपणाना प्रतिपक्षभूत
अजीर्णरोगस्थानीय (अजीर्ण रोग समान) पोताने मोह उपजावे छे. पण ज्ञानी तेवो नथी.
अहीं, ए तात्पर्य छे के परमोपेक्षासंयमधारीए शुद्धात्मानुभूतिथी प्रतिपक्षभूत बधोय
परिग्रह छोडवा योग्य छे अने परमोपेक्षासंयमना अभावमां वीतराग शुद्धात्मानुभूतिरूप
भावसंयमना रक्षणार्थे विशिष्ट संहननादि शक्तिनो अभाव होतां, जो के तपनुं साधन जे शरीर
तेना रक्षाना सहकारीभूत अन्न, जळ, संयम, शौच, ज्ञानना उपकरणो कमंडल, पींछी अने शास्त्रो
पतिव्रता स्त्री आदिको मोहके डरसे छोड़कर जिनदीक्षा लेके अजीर्ण समान मोहके दूर करनेके
लिये वैराग्य धारण करके औषधि समान जो उपकरणादि उनको ही ग्रहण करके उन्हींका
अनुरागी (प्रेमी) होता है, उनकी बुद्धिसे सुख मानता है, वह औषधिका ही अजीर्ण करता है
मात्राप्रमाण औषधि लेवे, तो वह रोगको हर सके यदि औषधिका ही अजीर्ण करेमात्रासे
अधिक लेवे, तो रोग नहीं जाता, उलटी रोगकी वृद्धि ही होती है यह निःसंदेह जानना इससे
यह निश्चय हुआ जो परमोपेक्षासंयम अर्थात् निर्विकल्प परमसमाधिरूप तीन गुप्तिमयी परम
शुद्धोपयोगरूप संयमके धारक हैं, उनके शुद्धात्माकी अनुभूतिसे विपरीत सब ही परिग्रह त्यागने
योग्य है
शुद्धोपयोगी मुनियोंके कुछ भी परिग्रह नहीं है, और जिनके परमोपेक्षा संयम नहीं
लेकिन व्यवहार संयम है, उनके भावसंयमकी रक्षणार्थ व्यवहार संयम है, उनके भावसंयमकी
रक्षाके निमित्त हीन संहननके होनेपर उत्कृष्ट शक्तिके अभावसे यद्यपि तपका साधन शरीरकी
रक्षाके निमित्त अन्न जलका ग्रहण होता है, उस अन्न जलके लेनेसे मल
मूत्रादिकी बाधा भी
होती है, इसलिये शौचका उपकरण कमंडलु, और संयमोपकरण पीछी, और ज्ञानोपकरण
पुस्तक इनको ग्रहण करते हैं, तो भी इनमें ममता नहीं है, प्रयोजनमात्र प्रथम अवस्थामें धारते