अधिकार-२ः दोहा-९६ ]परमात्मप्रकाशः [ ३७७
अथ त्रिभुवनस्थजीवानां मूढा भेदं कुर्वन्ति, ज्ञानिनस्तु भिन्नभिन्नसुवर्णानां षोडश-
वर्णिकैकत्ववत्केवलज्ञानलक्षणेनैकत्वं जानन्तीति दर्शयति —
२२३) जीवहँ तिहुयण-संठियहँ मूढा भेउ करंति ।
केवल-णाणिं णाणि फु डु सयलु वि एक्कु मुणंति ।।९६।।
जीवानां त्रिभुवनसंस्थितानां मूढा भेदं कुर्वन्ति ।
केवलज्ञानेन ज्ञानिनः स्फु टं सकलमपि एकं मन्यन्ते ।।९६।।
जीवहं इत्यादि । जीवहं तिहुयण-संठियहं श्वेतकृष्णरक्तादिभिन्नभिन्नवस्त्रैर्वेष्टितानां
षोडशवर्णिकानां भिन्नभिन्नसुवर्णानां यथा व्यवहारेण वस्त्रवेष्टनभेदेन भेदः तथा त्रिभुवन-
संस्थितानां जीवानां व्यवहारेण भेदं द्रष्ट्वा निश्चयनयेनापि मूढा भेउ करंति मूढात्मानो भेदं
हवे, मूढ जीवो त्रण लोकमां रहेला जीवोना भेद करे छे पण ज्ञानीओ तो, जुदा
जुदा सोनामां सोळवलापणाथी एकत्व छे तेम जीवोमां केवळज्ञानप्रमाणथी एकत्व जाणे छे,
एम दर्शावे छेः —
भावार्थः — श्वेत, कृष्ण, रक्त आदि जुदां जुदां वस्त्रोथी वींटायेल जुदां जुदां सोळवलां
सोनाना जेवी रीते व्यवहारनयथी वस्त्रनां वींटायेला भेदथी भेद छे, तेवी रीते त्रण लोकमां रहेला
जीवोना व्यवहारथी भेद देखीने मूढ जीवो निश्चयनयथी पण भेद करे छे अने वीतराग
आगे तीन लोकमें रहनेवाले जीवोंका अज्ञानी भेद करते हैं । जीवपनेसे कोई कम-बढ़
नहीं हैं, कर्मके उदयसे शरीर – भेद हैं, परंतु द्रव्यकर सब समान हैं । जैसे सोनेमें वान – भेद है,
वैसे ही परके संयोगसे भेद मालूम होता है, तो भी सुवर्णपनेसे सब समान हैं, ऐसा दिखलाते
हैं —
गाथा – ९६
अन्वयार्थ : — [त्रिभुवनसंस्थितानां ] तीन भुवनमें रहनेवाले [जीवानां ] जीवोंका
[मूढाः ] मूर्ख ही [भेदं ] भेद [कुर्वंति ] करते हैं, और [ज्ञानिनः ] ज्ञानी जीव [केवलज्ञानेन ]
केवलज्ञानसे [स्फु टं ] प्रगट [सकलमपि ] सब जीवोंको [एकं मन्यंते ] समान जानते हैं ।
भावार्थ : — व्यवहारनयकर सोलहवानके सुवर्ण भिन्न भिन्न वस्त्रोंमें लपेटें तो वस्त्रके
भेदसे भेद है, परंतु सुवर्णपनेसे भेद नहीं है, उसी प्रकार तीन लोकमें तिष्ठे हुए जीवोंका व्यवहार-
नयसे शरीरके भेदसे भेद है, परंतु जीवपनेसे भेद नहीं है । देहका भेद देखकर मूढ़ जीव भेद