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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१०१
जि लक्षणं जानाति य एव देह-विभेएं भेउ तहं देहविभेदेन भेदं तेषां जीवानां,
देहोद्भवविषयसुखरसास्वादविलक्षणशुद्धात्मभावनारहितेन जीवेन यान्युपार्जितानि कर्माणि
१
तदुदयेनोत्पन्नेन देहभेदेन जीवानां भेदं णाणि किं मण्णइ वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी किं मन्यते । नैव ।
कम् । सो जि तमेव पूर्वोक्तं देहभेदमिति । अत्र ये केचन ब्रह्माद्वैतवादिनो नानाजीवान्न मन्यन्ते
तन्मतेन विवक्षितैकजीवस्य जीवितमरणसुखदुःखादिके जाते सर्वजीवानां तस्मिन्नेव क्षणे
जीवितमरणसुखदुःखादिकं प्राप्नोति । कस्मादिति चेत् । एकजीवत्वादिति । न च तथा द्रश्यते इति
भावार्थः ।।१०१।।
व्यवधानरहितपणे देखवा-जाणवामां समर्थ एवां विशुद्धदर्शन अने विशुद्धज्ञान जीवोनुं लक्षण
छे, एम जे जाणे छे ते वीतराग स्वसंवेदनवाळा ज्ञानी शुं देहथी उद्भवता विषयसुखरसना
आस्वादथी विलक्षण शुद्धात्मानी भावनाथी रहित जीवे जे कर्मो उपार्जित कर्यां छे तेना उदयथी
उत्पन्न देहभेदथी जीवोना भेद माने? (कदी पण न माने.)
अहीं, जे कोई ब्रह्माद्वैतवादीओ (वेदान्तीओ) अनेक जीवोने मानता नथी (अने एक
ज जीव माने छे) तेमनी ए वात अप्रमाण छे, कारण के तेमना मतानुसार ‘एक ज
जीवने’ मानवामां बहु भारे दोष आवे छे. तेना मत अनुसारे विवक्षित एक जीवने
जीवित-मरण सुख-दुःखादि थतां, सर्व जीवोने ते ज क्षणे जीवित-मरण सुख-दुःखादि थवां
जोईए; शा माटे? कारण के तेमना मतमां ‘एक ज जीव छे’ एवी मान्यता छे. पण एवुं
(अहीं) जोवामां आवतुं नथी, (एक ज जीवने जीवित-मरणादि थतां बधाने जीवित-मरण
थतां जोवामां आवतां नथी) एवो भावार्थ छे. १०१.
समयमें जाननेमें समर्थ जो केवलदर्शन केवलज्ञान है, उसे निज लक्षणोंसे जो कोई जानता है,
वही सिद्ध - पद पाता है । जो ज्ञानी अच्छी तरह इन निज लक्षणोंको जान लेवे वह देहके भेदसे
जीवोंका भेद नहीं मान सकता । अर्थात् देहसे उत्पन्न जो विषय – सुख उनके रसके आस्वादसे
विमुख शुद्धात्माकी भावनासे रहित जो जीव उसने उपार्जन किये जो ज्ञानावरणादिकर्म, उनके
उदयसे उत्पन्न हुए देहादिक के भेदसे जीवोंका भेद, वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी कदापि नहीं मान
सकता । देहमें भेद हुआ तो क्या, गुणसे सब समान हैं, और जीव – जातिकर एक हैं । यहाँ
पर जो कोई ब्रह्माद्वैतवादी वेदान्ती नाना जीवोंको नहीं मानते हैं, और वे एक ही जीव मानते
हैं, उनकी यह बात अप्रमाण है । उनके मतमें एक ही जीवके माननेसे बड़ा भारी दोष होता
है । वह इस तरह है, कि एक जीवके जीने-मरने, सुख-दुःखादिके होने पर सब जीवोंके उसी
समय जीना, मरना, सुख, दुःखादि होना चाहिये, क्योंकि उनके मतमें वस्तु एक है । परन्तु ऐसा
देखनेमें नहीं आता । इसलिये उनका वस्तु एक मानना वृथा है, ऐसा जानो ।।१०१।।
१ पाठान्तरः — तदुयेनोत्पन्नेन = तदुयोत्पन्नेन