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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१०७
वीतरागसर्वज्ञप्रणीतमार्गेण मन्यन्ते तदा तेषां दूषणं नास्ति, यदि पुनरेकः पुरुषविशेषो व्यापी
जगत्कर्ता ब्रह्मादिना-मास्तीति मन्यन्ते तदा तेषां दूषणम् । कस्माद् दूषणमिति चेत् । प्रत्यक्षादि-
प्रमाणबाधितत्वात् साधकप्रमाणप्रमेयचिन्ता तर्के विचारिता तिष्ठत्यत्र तु नोच्यते अध्यात्म-
शास्त्रत्वादित्यभिप्रायः ।।१०७।। इति षोडशवर्णिकासुवर्णद्रष्टान्तेन केवलज्ञानादिलक्षणेन सर्वे
‘परमविष्णुमय’ कहे छे, वळी केटलाक ‘परमशिवमय’ कहे छे.
अहीं, शिष्य प्रश्न करे छे के — जो तमे पण आ प्रमाणे जगतने ‘परमब्रह्ममय’,
‘परमविष्णुमय’, ‘परमशिवमय’ मानो छो तो पछी तमे अन्यमतवाळाओने शा माटे दूषण
आपो छो?
तेनो परिहार कहे छे – जो पूर्वोक्त नयविभागथी केवळज्ञानादि गुणोनी अपेक्षाए
वीतरागसर्वज्ञप्रणीत मार्गानुसार माने तो तेमने दूषण नथी, पण जो कोई एक
पुरुषविशेषने जगत्व्यापी, जगत्कर्ता तरीके ब्रह्मादिना नाम वडे माने छे तो तेमने दूषण
छे, कारण के ते प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोथी बाधित छे. (जो कोई एक शुद्ध, बुद्ध नित्य
मुक्त छे ते शुद्ध-बुद्धने कर्तापणुं, हर्तापणुं संभवी शकतुं नथी, कारण के भगवान मोहथी
रहित छे माटे तेने कर्ता-हर्तापणानी इच्छा संभवी शके नहि. ते तो निर्दोष छे माटे कर्ता
-हर्ता भगवानने मानवामां प्रत्यक्ष विरोध आवे छे) तेना साधक प्रमाण प्रमेयनी विचारणा
न्यायशास्त्रोमां करवामां आवी छे. अहीं अध्यात्मशास्त्र होवाथी तेनुं विवेचन कहेवामां आवतुं
नथी, एवो अभिप्राय छे. १०७.
ही परमविष्णु कहना, परमशिव कहना चाहिये । यही अभिप्राय लेकर कोई एक ब्रह्ममयी जगत्
कहते हैं, कोई एक विष्णुमयी कहते हैं, कोई एक शिवमयी कहते हैं । यहाँ पर शिष्यने प्रश्न
किया, कि तुम भी जीवोंको परब्रह्म मानते हो, तथा परमविष्णु, परमशिव मानते हो, तो
अन्यमतवालोंको क्यों दूषण देते हो ? उसका समाधान — हम तो पूर्वोक्त नयविभागकर
केवलज्ञानादि गुणकी अपेक्षा वीतराग सर्वज्ञप्रणीत मार्गसे जीवोंको ऐसा मानते हैं, तो दूषण नहीं
है । इस तरह वे नहीं मानते हैं । वे एक कोई पुरुष जगत्का कर्त्ता-हर्त्ता मानते हैं । इसलिये
उनको दूषण दिया जाता है, क्योंकि जो कोई एक शुद्ध-बुद्ध नित्य मुक्त है, उस शुद्ध-बुद्धको
कर्त्ता-हर्त्तापना हो ही नहीं सकता, और अच्छा है वह मोहकी प्रकृति है । भगवान् मोहसे रहित
हैं, इसलिये कर्त्ता-हर्त्ता नहीं हो सकते । कर्त्ता-हर्त्ता मानना प्रत्यक्ष विरोध है । हम तो जीव –
राशिको परमब्रह्म मानते हैं, उसी जीवराशिसे लोक भरा हुआ है । अन्यमती ऐसा मानते हैं, कि
एक ही ब्रह्म अनंतरूप हो रहा है । जो वही एक सबरूप हो रहा होवे, तो नरक निगोद स्थानको
कौन भोगे ? इसलिये जीव अनंत हैं । इन जीवोंको ही परमब्रह्म, परमशिव कहते हैं, ऐसा तू
निश्चयसे जान ।।१०७।।