अधिकार-२ः दोहा-१०७ ]परमात्मप्रकाशः [ ३९५
क्वचिदपि । तथा ते जीवाः शुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन शक्त्यपेक्षया
केवलज्ञानादिगुण-रूपास्तेन कारणेन स एव जीवराशिः यद्यपि व्यवहारेण कर्मकृतस्तिष्ठति तथापि
निश्चयनयेन शक्ति रूपेण परमब्रह्मस्वरूपमिति भण्यते, परमविष्णुरिति भण्यते, परमशिव इति च ।
तेनैव कारणेन स एव जीवराशिः केचन परब्रह्ममयं जगद्वदन्ति, केचन परमविष्णुमयं वदन्ति,
केचन पुनः परमशिवमयमिति च । अत्राह शिष्यः । यद्येवंभूतं जगत्संमतं भवतां तर्हि परेषां
किमिति दूषणं दीयते भवद्भिः । परिहारमाह । यदि पूर्वोक्त नयविभागेन केवलज्ञानादिगुणापेक्षया
थळचर अने नभचर ए बन्ने जातिना तिर्यंच छे. तथा मनुष्य मध्यलोकना अढी द्वीपमां
ज छे, बीजी जग्याए नथी. देवलोकमां स्वर्गवासी देवदेवी छे, अन्य पंचेन्द्रिय नथी.
पाताळलोकमां उपरना भागमां भवनवासीदेव तथा व्यंतरदेव अने नीचेना भागमां सात
नरकोना नारकी पंचेन्द्रिय छे, अन्य कोई नथी अने मध्यलोकमां भवनवासी, व्यंतरदेव तथा
ज्योतिषीदेव ए त्रण जातिना देव अने तिर्यंच छे, आ रीते त्रस जीव लोकमां कोई जग्याए
छे कोई जग्याए नथी. आ रीते आ लोक जीवोथी भरेलो छे. सूक्ष्मस्थावर वगरनो तो
लोकनो कोई भाग खाली नथी, बधी जग्याए सूक्ष्मस्थावर भर्या पड्या छे.)
वळी, ते जीवो शुद्धपारिणामिक परमभावग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनयथी शक्ति-अपेक्षाए
केवळज्ञानादिगुणरूप छे, ते कारणे ते जीवराशि – जोके व्यवहारनयथी कर्मकृत छे तोपण
निश्चयनयथी शक्तिरूपे ‘परम ब्रह्मस्वरूप’ कहेवाय छे, ‘परमविष्णु’ कहेवाय छे अने ‘परमशिव’
कहेवाय छे, ते कारणे ज ते जीवराशिने ज केटलाक ‘परमब्रह्ममय जगत’ कहे छे, केटलाक
जहाँ आधार है वहाँ हैं । सो कहीं पाये जाते हैं, कही नहीं पाये जाते, परंतु ये भी बहुत जगह
हैं । इसप्रकार स्थावर तो तीनों लोकोंमें पाये जाते हैं, और दोइंद्री, तेइंद्री, चौइंद्री, पंचेंद्री तिर्यंच
ये मध्यलोकमें ही पाये जाते हैं, अधोलोक-ऊ र्ध्वलोकमें नहीं । उसमेंसे दोइंद्री, तेइंद्री, चौइन्द्री
जीव कर्मभूमिमें ही पाये जाते हैं, भोगभूमिमें नहीं । भोगभूमिमें गर्भज पंचेंद्री सैनी थलचर या
नभचर ये दोनों जाति – तिर्यंच हैं । मनुष्य मध्यलोकमें ढाई द्वीप में पाये जाते हैं, अन्य जगह
नहीं, देवलोकमें स्वर्गवासी देव-देवी पाये जाते हैं, अन्य पंचेंद्री नहीं, पाताललोकमें ऊ परके
भागमें भवनवासीदेव तथा व्यंतरदेव और नीचेके भागमें सात नरकोंके नारकी पंचेंद्री हैं, अन्य
कोई नहीं और मध्यलोकमें भवनवासी व्यंतरदेव तथा ज्योतिषीदेव ये तीन जातिके देव और
तिर्यंच पाये जाते हैं । इसप्रकार त्रसजीव किसी जगह हैं, किसी जगह नहीं हैं । इस तरह यह
लोक जीवोंसे भरा हुआ है । सूक्ष्मस्थावरके बिना तो लोकका कोई भाग खाली नहीं है, सब
जगह सूक्ष्मस्थावर भरे हुए हैं । ये सभी जीव शुद्ध पारिणामिक परमभाव ग्राहक शुद्ध
द्रव्यार्थिकनयकर शक्तिकी अपेक्षा केवलज्ञानादि गुणरूप हैं । इसलिये यद्यपि यह जीव - राशि
व्यवहारनयकर कर्माधीन है, तो भी निश्चयनयकर शक्तिरूप परब्रह्मस्वरूप है । इन जीवोंको