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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१०८
परु जाणंतु वि इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । परु जाणंतु वि परद्रव्यं
जानन्तोऽपि । के ते । परम-मुणि वीतरागस्वसंवेदनज्ञानरताः परममुनयः । किं कुर्वन्ति । पर-
संसग्गु चयंति परसंसर्गं त्यजन्ति निश्चयेनाभ्यन्तरे रागादिभावकर्मज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मशरीरादि-
नोकर्म च बहिर्विषये मिथ्यात्वरागादिपरिणतासंवृतजनोऽपि परद्रव्यं भण्यते । तत्संसर्गं परिहरन्ति ।
यतः कारणात् पर-संगइँ [?] पूर्वोक्त बाह्याभ्यन्तर परद्रव्यसंसर्गेण परमप्पयहं वीतराग-
नित्यानन्दैकस्वभावपरमसमरसीभावपरिणतपरमात्मतत्त्वस्य । कथंभूतस्य । लक्खहं लक्ष्यस्य
ध्येयभूतस्य धनुर्विद्याभ्यासप्रस्तावे लक्ष्यरूपस्यैव जेण चलंति येन कारणेन चलन्ति त्रिगुप्तिसमाधेः
सकाशात् च्युता भवन्तीति । अत्र परमध्यानाविघातकत्वान्मिथ्यात्वरागादिपरिणामस्तत्परिणतः
पुरुषरूपो वा परसंसर्गस्त्यजनीय इति भावार्थः ।।१०८।।
भावार्थः — वीतराग स्वसंवेदनज्ञानमां रत परममुनिओ परद्रव्यने जाणता थका
परसंसर्गने छोडे छे – निश्चयथी अभ्यंतरमां रागादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म अने शरीरादि
नोकर्म तथा बहारमां मिथ्यात्व, रागादिरूपे परिणत असंवृतजन (असंयमी जीव) ए बधुं परद्रव्य
कहेवाय छे, तेनो संग छोडे छे; कारण के जेवी रीते धनुर्विद्याना अभ्यास समये बीजे लक्ष जतां,
धनुर्धारी लक्ष्यरूपथी चलित थाय छे तेवी रीते मुनिओ पूर्वोक्त बाह्य, अभ्यंतर परद्रव्यना संसर्गथी
ध्येयभूत, वीतरागनित्यानंद ज जेनो एक स्वभाव छे एवा परमसमरसी भावरूपे परिणत
परमात्मतत्त्वथी चलित थाय छे – त्रण गुप्तियुक्त समाधिथी च्युत थाय छे.
अहीं, परमध्यानना विघातक होवाथी मिथ्यात्व, रागादि परिणामरूप अथवा
मिथ्यात्व रागादि परिणामोमां परिणत पुरुषरूप एवो परसंसर्ग छोडवा योग्य छे, एवो भावार्थ
छे. १०८.
[त्यजंति ] छोड़ देते हैं । [येन ] क्योंकि [परसंगेन ] परद्रव्यके सम्बन्धसे [लक्ष्यस्य ] ध्यान
करने योग्य जो [परमात्मनः ] परमपद उससे [चलंति ] चलायमान हो जाते हैं ।
भावार्थ : — शुद्धोपयोगी मुनि वीतराग स्वसंवेदनज्ञानमें लीन हुए परद्रव्योंके साथ
सम्बन्ध छोड़ देते हैं । अंदरके विकार रागादि भावकर्म और बाहरके शरीरादि ये सब परद्रव्य
कहे जाते हैं । वे मुनिराज एक आत्मभावके सिवाय सब परद्रव्यका संसर्ग (सम्बन्ध) छोड़
देते हैं । तथा रागी, द्वेषी, मिथ्यात्वी, असंयमी जीवोंका सम्बन्ध छोड़ देते हैं । इनके संसर्गसे
परमपद जो वीतरागनित्यानंद अमूर्तस्वभाव परमसमरसीभावरूप जो परमात्मतत्त्व ध्यावने योग्य
है, उससे चलायमान हो जाते हैं, अर्थात् तीन गुप्तिरूप परमसमाधिसे रहित हो जाते हैं । यहाँ
पर परमध्यानके घातक जो मिथ्यात्व रागादि अशुद्ध परिणाम तथा रागी-द्वेषी पुरुषोंका संसर्ग
सर्वथा त्याग करना चाहिये, यह सारांश है ।।१०८।।