अधिकार-२ः दोहा-१११ ]परमात्मप्रकाशः [ ४०१
परमात्मपदार्थप्रतिपक्षभूतैर्निश्चयनयेन स्वकीयबुद्धिदोषरूपैः रागद्वेषादिपरिणामैः खलैर्दुष्टैर्व्यवहारेण
तु मिथ्यात्वरागादिपरिणतपुरुषैः । अस्मिन्नर्थे द्रष्टान्तमाह । वइसाणरु लोहहं मिलिउ वैश्वानरो
लोहमिलितः । तें तेन कारणेन पिट्टियइघणेहिं पिट्टनक्रियां लभते । कैः घनैरिति ।
अत्रानाकुलत्वसौख्यविघातको येन द्रष्टश्रुतानुभूतभोगकांक्षारूपनिदानबन्धाद्यपध्यानपरिणाम एव
परसंसर्गस्त्याज्यः । व्यवहारेण तु परपरिणतपुरुष इत्याभिप्रायः ।।११०।।
अथ मोहपरित्यागं दर्शयति —
२३८) जोइय मोहु परिच्चयहि मोहु ण भल्लउ होइ ।
मोहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहंतउ जोइ ।।१११।।
योगिन् मोहं परित्यज मोहो न भद्रो भवति ।
मोहासक्तं सकलं जगद् दुःखं सहमानं पश्य ।।१११।।
परमात्मपदार्थना प्रतिपक्षभूत अने निश्चयनयथी स्वकीयबुद्धिदोषरूप दुष्ट रागद्वेष आदि परिणामो
अने व्यवहारनयथी मिथ्यात्व, रागादिरूपे परिणत दुष्ट पुरुषो साथेना संसर्गथी, नाश पामे छे.
आनुं समर्थन करवा माटे द्रष्टांत कहे छे. अग्नि लोढानो संग पामे छे तेथी घण वडे टिपाया
करे छे.
अहीं, अनाकुळतारूप सुखना विघातक, देखेला, सांभळेला अने अनुभवेला भोगोनी
वांछारूप निदानबंध आदि अपध्यानरूप परिणामरूप ज परसंसर्ग त्याज्य छे अने व्यवहारथी
परपरिणत पुरुष त्याज्य छे, एवो अभिप्राय छे. ११०.
हवे, मोहनो त्याग करवानुं दर्शावे छेः —
संगतिसे नाश हो जाते हैं । अथवा आत्माके निजगुण मिथ्यात्व रागादि अशुद्ध भावोंके संबंधसे
मलिन हो जाते हैं । जैसे अग्नि लोहेके संगमें पीटी – कूटी जाती है । यद्यपि आगको घन कूट
नहीं सकता, परंतु लोहेकी संगतिसे अग्नि भी कूटनेमें आती है, उसी तरह दोषोंके संगसे गुण
भी मलिन हो जाते हैं । यह कथन जानकर आकुलता रहित सुखके घातक जो देखे, सुने, अनुभव
किये भोगोंकी वाँछारूप निदानबंध आदि खोटे परिणामरूपी दुष्टोंकी संगति नहीं करना, अथवा
अनेक दोषोंकर सहित रागी-द्वेषी जीवोंकी भी संगति कभी नहीं करना, यह तात्पर्य है ।।११०।।
आगे मोहका त्याग करना दिखलाते हैं —
गाथा – १११
अन्वयार्थ : — [योगिन् ] हे योगी, तू [मोहं ] मोहको [परित्यज ] बिलकुल छोड़ दे,