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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-११०
भावार्थः । वीतरागनिर्विकल्पसमाधिभावनाप्रतिपक्षभूतरागादिस्वकीयपरिणाम एव निश्चयेन पर
इत्युच्यते । व्यवहारेण तु मिथ्यात्वरागादिपरिणतपुरुषः सोऽपि कथंचित्, नियमो नास्तीति ।।
१०९ ।।
अथैतदेव परसंसर्गदूषणं द्रष्टान्तेन समर्थयति —
२३७) भल्लाहँ वि णासंति गुण जहँ संसग्ग खलेहिं ।
वइसाणरु लोहहँ मिलिउ तें पिट्टियइ घणेहिं ।।११०।।
भद्राणामपि नश्यन्ति गुणाः येषां संसर्गः खलैः ।
वैश्वानरो लोहेन मिलितः तेन पिट्टयते घनैः ।।११०।।
भल्लाहं वि इत्यादि । भल्लाहं वि भद्राणामपि स्वस्वभावसहितानामपि णासन्ति गुण
नश्यन्ति परमात्मोपलब्धिलक्षणगुणाः । येषां किम् । जहँ संसग्ग येषां संसर्गः । कै सह । खलेहिं
अहीं, आ भावार्थ छे के वीतराग निर्विकल्प समाधिनी भावनाथी प्रतिपक्षभूत रागादिरूप
स्वकीय परिणाम ज निश्चयथी ‘पर’ (‘परद्रव्य’) कहेवाय छे अने व्यवहारथी मिथ्यात्व, रागादिरूपे
परिणत पुरुष ते पण कथंचित्, (पर कहेवाय छे,) नियम नथी. १०९.
हवे, परद्रव्यनो संसर्ग दूषण छे ए ज कथनने द्रष्टांत वडे द्रढ करे छेः —
भावार्थः — स्वस्वभावसहित भद्र जीवोना परमात्मानी प्राप्तिस्वरूप गुणो,
उत्पन्न होगी, और शरीरमें दाह होगा । यहाँ तात्पर्य यह है, कि वीतराग निर्विकल्प परमसमाधिकी
भावनासे विपरीत जो रागादि अशुद्ध परिणाम वे ही परद्रव्य कहे जाते हैं, और व्यवहारनयकर
मिथ्यात्वी रागी – द्वेषी पुरुष पर कहे गये हैं । इन सबकी संगति सर्वदा दुःख देनेवाली है, किसी
प्रकार सुखदायी नहीं है, ऐसा निश्चय है ।।१०९।।
आगे परद्रव्यका प्रसंग महान् दुःखरूप हैं, यह कथन दृष्टांतसे दृढ़ करते हैं —
गाथा – ११०
अन्वयार्थ : — [खलैः सह ] दुष्टोंके साथ [येषां ] जिनका [संसर्गः ] संबंध है, वह
[भद्राणाम् अपि ] उन विवेकी जीवोंके भी [गुणाः ] सत्य शीलादि गुण [नश्यन्ति ] नष्ट हो
जाते हैं, जैसे [वैश्वानरः ] आग [लोहेन ] लोहेसे [मिलितः ] मिल जाती है, [तेन ] तभी
[घनैः ] घनोंसे [पिट्टयते ] पीटी – कूटी जाती है ।
भावार्थ : — विवेकी जीवोंके शीलादि गुण मिथ्यादृष्टि रागी द्वैषी अविवेकी जीवोंकी