अधिकार-२ः दोहा-१११✽४ ]परमात्मप्रकाशः [ ४०५
जइ इच्छसि यदि इच्छसि भो साधो द्वादशविधतपःफलम् । कथंभूतम् । महद्विपुलं
स्वर्गापवर्गरूपं ततः कारणात् वीतरागनिजानन्दैकसुखरसास्वादानुभवेन तृप्तो भूत्वा
मनोवचनकायेषु भोजनगृद्धिं वर्जय इति तात्पर्यम् ।।१११✽३।।
उक्तं च —
२४१) जे सरसिं संतुट्ठ-मण विरसि कसाउ वहंति ।
ते मुणि भोयण-घार गणि णवि परमत्थु मुणंति ।।१११✽४।।
ये सरसेन संतुष्टमनसः विरसे कषायं वहन्ति ।
ते मुनयः भोजनगृध्राः गणय नैव परमार्थं मन्यन्ते ।।१११✽४।।
जे इत्यादि । जे सरसिं संतुट्ठमण ये केचन सरसेन सरसाहारेण संतुष्टमनसः विरसि
कसाउ वहंति विरसे विरसाहारे सति कषायं वहन्ति कुर्वन्ति ते ते पूर्वोक्ताः मुणि
भावार्थः — हे योगी! जो तुं बार प्रकारना तपनुं महान भारे फळ एवा स्वर्ग-मोक्षने
इच्छे छे, तो वीतराग निजानंद एक सुखरसनो आस्वादरूप अनुभवथी तृप्त थयो थको, मन,
वचन अने कायाथी भोजननी लोलुपतानो त्याग कर! ए सारांश छे. १११✾३.
वळी, कह्युं छे केः —
भावार्थः — गृहस्थोनो आहारदानादिक ज परम धर्म छे, सम्यक्त्व सहित तेनाथी
(आहारादिकथी) ज तेओ परंपराए मोक्ष मेळवे छे शा माटे गृहस्थोनो ते ज परम धर्म छे?
वीतराग निजानंद एक सुखरसका आस्वाद उसके अनुभवसे तृप्त हुआ [मनोवचनयोः ] मन,
वचन और [काये ] कायसे [भोजनगृद्धिं ] भोजनकी लोलुपता को [विवर्जयस्व ] त्याग कर
दे । यह सारांश है ।।१११✽३।।
और भी कहा है —
गाथा – १११✽४
अन्वयार्थ : — [ये ] जो जोगी [सरसेन ] स्वादिष्ट आहारसे [संतुष्टमनसः ] हर्षित
होते हैं, और [विरसे ] नीरस आहारमें [कषायं ] क्रोधादि कषाय [वहंति ] करते हैं, [ते
मुनयः ] वे मुनि [भोजन गृध्राः ] भोजनके विषयमें गृद्धपक्षीके समान हैं, ऐसा तू [गणय ]
समझ । वे [परमार्थं ] परमतत्त्वको [नैव मन्यंते ] नहीं समझते हैं ।
भावार्थ : — जो कोई वीतरागके मार्गसे विमुख हुए योगी रस सहित स्वादिष्ट आहारसे
खुश होते हैं, कभी किसीके घर छह रसयुक्त आहार पावें तो मनमें हर्ष करें, आहारके देनेवालेसे