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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१११
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मुनयस्तपोधनाः भोयणधार गणि भोजनविषये गृध्रसद्रशान् गणय मन्यस्व जानीहि । इत्थंभूताः
सन्तः णवि परमत्थु मुणंति नैव परमार्थं मन्यन्ते जानन्तीति । अयमत्र भावार्थः ।
गृहस्थानामाहारदानादिकमेव परमो धर्मस्तेनैव सम्यक्त्वपूर्वेण परंपरया मोक्षं लभन्ते कस्मात् स
एव परमो धर्म इति चेत्, निरन्तरविषयकषायाधीनतया आर्तरौद्रध्यानरतानां निश्चयरत्नत्रय-
लक्षणस्य शुद्धोपयोगपरमधर्मस्यावकाशो नास्तीति । शुद्धोपयोगपरमधर्मरतैस्तपोधनैस्त्वन्नपानादि-
विषये मानापमानसमतां कृत्वा यथालाभेन संतोषः कर्तव्य इति ।।१११❃४।।
अथ शुद्धात्मोपलम्भाभावे सति पञ्चेन्द्रियविषयासक्त जीवानां विनाशं दर्शयति —
(ए कारणे के) निरंतर विषयकषायने आधीन होवाथी तेवा आर्त अने रौद्रध्यानमां रत जीवोने
निश्चयरत्नत्रयस्वरूपे शुद्धोपयोगरूप परमधर्मनो तो अवकाश नथी. (अर्थात् गृहस्थोने
शुभोपयोगनी ज मुख्यता छे.)
शुद्धोपयोगरूप परमधर्ममां रत तपोधनोए तो अन्न-पानादि बाबतमां मान-अपमानमां
समता धारीने यथालाभथी (जे मळे तेमां) संतोष करी लेवो जोईए — (संतोष राखवो
जोईए). १११❃४.
हवे, शुद्धात्मानी प्राप्तिनो अभाव होतां, पांच इन्द्रियना विषयमां आसक्त जीवोनो
विनाश थाय छे, एम दर्शावे छेः —
प्रसन्न होते हैं, यदि किसीके घर रस रहित भोजन मिले तो कषाय करते हैं, उस गृहस्थको बुरा
समझते हैं, वे तपोधन नहीं हैं, भोजनके लोलुपी हैं । गृद्धपक्षीके समान हैं । ऐसे लोलुपी यती देहमें
अनुरागी होते हैं, परमात्म - पदार्थको नहीं जानते । गृहस्थोंके तो दानादिक ही बड़े धर्म हैं । जो
सम्यक्त्व सहित दानादि करे, तो परम्परासे मोक्ष पावे । क्योंकि श्रावकका दानादिक ही परमधर्म
है । वह ऐसे हैं, कि ये गृहस्थ – लोग हमेशा विषय कषायके आधीन हैं, इससे इनके आर्त रौद्र ध्यान
उत्पन्न होते रहते हैं, इस कारण निश्चय रत्नत्रयरूप शुद्धोपयोग परमधर्मका तो इनके ठिकाना ही
नहीं है, अर्थात् गृहस्थोंके शुभोपयोगकी ही मुख्यता है । और शुद्धोपयोगी मुनि इनके घर आहार
लेवें, तो इसके समान अन्य क्या ? श्रावकका तो यही बड़ा धरम है, जो कि यती, अर्जिका,
श्रावक, श्राविका इन सबको विनयपूर्वक आहार दे । और यतीका यही धर्म है, अन्न जलादिमें राग
न करे, और मान-अपमानमें समताभाव रक्खे । गृहस्थके घर जो निर्दोष आहारादिक जैसा मिले
वैसा लेवे, चाहे चावल मिले, चाहे अन्य कुछ मिले । जो मिले उसमें हर्ष विषाद न करे । दूध,
दहीं, घी, मिष्टान्न, इनमें इच्छा न करे । यही जिनमार्गमें यतीकी रीति हैं ।।१११❃४।।
आगे शुद्धात्माकी प्राप्तिके अभावमें जो विषयी जीव पाँच इंद्रियोंके विषयोंमें आसक्त
हैं, उनका अकाज (विनाश) होता है, ऐसा दिखलाते हैं —