अधिकार-२ः दोहा-११४ ]परमात्मप्रकाशः [ ४०९
भावार्थः — हे प्रभाकरभट्ट! लोभकषायथी विपरीत एवा परमात्मस्वभावथी विपरीत
लोभने तुं छोड, कारण के निर्लोभ एवा परमात्मानी भावनाथी रहित जीवो दुःख भोगवी रह्यां
छे. ११३.
हवे, आ ज लोभकषायना दोष द्रष्टांतथी सिद्ध करे छेः —
हे योगिन् लोभं परित्यज । कस्मात् । लोभो भद्रः समीचीनो न भवति । लोभासक्तं
समस्तं जगद् दुःखं सहमानं पश्येति । तथाहि — लोभकषायविपरीतात् परमात्मस्वभावाद्विपरीतं
लोभं त्यज हे प्रभाकरभट्ट । यतः कारणात् निर्लोभपरमात्मभावनारहिताजीवा दुःखमुप-
भुञ्जानास्तिष्ठन्तीति तात्पर्यम् ।।११।।
अथामुमेव लोभकषायदोषं द्रष्टान्तेन समर्थयति —
२४४) तलि अहिरणि वरि घण-वडणु संडस्सय-लुंचोडु ।
लोहहँ लग्गिवि हुयवहहँ पिक्खु पडंतउ तोडु ।।११४।।
तले अधिकरणं उपरि घनपातनं संदशकलुञ्चनम् ।
लोहं लगित्वा हुतवहस्य पश्य पतत् त्रोटनम् ।।११४।।
तले अधस्तनभागेऽधिकरणसंज्ञोपकरणं उपरितनभागे घनघातपातनं तथैव संडसक-
यह लोभ [भद्रः न भवति ] अच्छा नहीं है, क्योंकि [लोभासक्तं ] लोभमें फँसे हुए [सकलं
जगत् ] सम्पूर्ण जगत्को [दुःखं सहमानं ] दुःख सहते हुए [पश्य ] देख ।
भावार्थ : — लोभकषायसे रहित जो परमात्मस्वभाव उससे विपरीत जो इसभव
परभवका लोभ, धन धान्यादिका लोभ उसे तू छोड़ । क्योंकि लोभी जीव भव भवमें दुःख
भोगते हैं, ऐसा तू देख रहा है ।।११३।।
आगे लोभकषायके दोषको दृष्टांतसे पुष्ट करते हैं —
गाथा – ११४
अन्वयार्थ : — [लोहं लगित्वा ] जैसे लोहेका संबंध पाकर [हुतवहं ] अग्नि [तले ]
नीचे रक्खे हुए [अधिकरणं उपरि ] अहरन (निहाई) के ऊ पर [घनपातनं ] घनकी चोट,
[संदशकुलुंचनम् ] संडासीसे खेंचना, [पतत् त्रोटनम् ] चोट लगनेसे टूटना, इत्यादि दुःखोंको
सहती हैं, ऐसा [पश्य ] देख ।
भावार्थ : — लोहेकी संगतिसे लोकप्रसिद्ध देवता अग्नि दुःख भोगती हैं, यदि लोहेका