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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-११५
भावार्थः — जेम लोढाना गोळाना संसर्गथी अग्नि के जे अज्ञानी लोकोमां पूज्य अने
प्रसिद्ध देव छे ते पण टिपाय छे, तेम लोभादि कषायपरिणतिना कारणभूत पंचेन्द्रिय शरीरना
संबंधथी निर्लोभ परमात्मतत्त्वनी भावनाथी रहित जीव घणना घा समान नरकादिनां दुःखो घणा
काळ सुधी सहन करे छे. ११४.
हवे, स्नेहनो त्याग करवानुं कहे छेः —
संज्ञेनोपकरणेन लुञ्चनमाकर्षणम् । केन । लोहपिण्डनिमित्तेन । कस्य । हुतभुजोऽग्नेः त्रोटनं
खण्डनं पतन्त पश्येति । अयमत्र भावार्थः । यथा लोहपिण्डसंसर्गादग्निरज्ञानिलोकपूज्या प्रसिद्धा
देवता पिट्टनक्रियां लभते तथा लोभादिकषायपरिणतिकारणभूतेन पञ्चेन्द्रियशरीरसंबन्धेन
निर्लोभपरमात्मतत्त्वभावना रहितो जीवो घनघातस्थानीयानि नारकादिदुःखानि बहुकालं सहत
इति ।।११४।।
अथ स्नेहपरित्यागं कथयति —
२४५) जोइय णेहु परिच्चयहि णेहु ण भल्लउ होइ ।
णेहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहंतउ जोइ ।।११५।।
योगिन् स्नेहं परित्यज स्नेहो न भद्रो भवति ।
स्नेहासक्तं सकलं जगद् दुःखं सहमानं पश्य ।।११५।।
सम्बन्ध न करे तो इतने दुःख क्यों भोगे, अर्थात् जैसे अग्नि लोहपिंडके सम्बन्धसे दुःख भोगती
है, उसी तरह लोह अर्थात् लोभके कारणसे परमात्मतत्त्वकी भावनासे रहित मिथ्यादृष्टि जीव
घनघातके समान नरकादि दुःखोंको बहुत काल तक भोगता है ।।११४।।
आगे स्नेहका त्याग दिखलाते हैं —
गाथा – ११५
अन्वयार्थ : — [योगिन् ] हे योगी, रागादि रहित वीतराग परमात्मपदार्थके ध्यानमें
ठहरकर ज्ञानका वैरी [स्नेहं ] स्नेह (प्रेम) को [परित्यज ] छोड़, [स्नेहः ] क्योंकि स्नेह
[भद्रः न भवति ] अच्छा नहीं है, [स्नेहासक्तं ] स्नेहमें लगा हुआ [सकलं जगत् ] समस्त
संसारीजीव [दुःखं सहमानं ] अनेक प्रकार शरीर और मनके दुःख सह रहे हैं, उनको तू
[पश्य ] देख । ये संसारीजीव स्नेह रहित शुद्धात्मतत्त्वकी भावनासे रहित हैं, इसलिए नाना
प्रकारके दुःख भोगते हैं । दुःखका मूल एक देहादिकका स्नेह ही है ।