Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 116 (Adhikar 2).

< Previous Page   Next Page >


Page 411 of 565
PDF/HTML Page 425 of 579

 

background image
अधिकार-२ः दोहा-११६ ]परमात्मप्रकाशः [ ४११
भावार्थहे योगी! रागादि स्नेहथी प्रतिपक्षभूत एवा वीतराग परमात्म-पदार्थना
ध्यानमां स्थित थईने शुद्ध आत्मतत्त्वथी विपरीत एवा स्नेहने तुं छोड. शा माटे? कारण के
स्नेह समीचीन नथी. ते स्नेहमां आसक्त सकळ जगतने निःस्नेह एवा शुद्ध आत्मानी भावनाथी
रहित शारीरिक अने मानसिक अनेक प्रकारनां घणां दुःखोने सहन करतुं, तुं देख.
अहीं, भेदाभेदरत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग छोडीने, तेना प्रतिपक्षभूत मिथ्यात्व, रागादिमां
स्नेह न करवो एवुं तात्पर्य छे. कह्युं पण छे के ‘‘तावदेव सुखी जीवो यावन्न स्निह्यते क्वचित्
स्नेहानुविद्धहृदयं दुःखमेव पदे पदे ।।’’ (अर्थजीव त्यां सुधी सुखी छे के ज्यां सुधी जगतना
कोईपण पदार्थ प्रत्ये स्नेह करतो नथी. स्नेहथी वींधायेलुं (स्नेहयुक्त) हृदय डगले-डगले दुःख
ज पामे छे. ११५.
हवे, स्नेहना दोषने द्रष्टांत वडे द्रढ करे छेः
रागादिस्नेहप्रतिपक्षभूते वीतरागपरमात्मपदार्थध्याने स्थित्वा शुद्धात्मतत्त्वाद्विपरीतं हे
योगिन् स्नेहं परित्यज कस्मात् स्नेहो भद्रः समीचीनो न भवति तेन स्नेहेनासक्तं सकलं
जगन्निःस्नेहशुद्धात्मभावनारहितं विविधशारीरमानसरूपं बहुदुःखं सहमानं पश्येति अत्र
भेदाभेदरत्नत्रयात्मकमोक्षमार्गं मुक्त्वा तत्प्रतिपक्षभूते मिथ्यात्वरागादौ स्नेहो न कर्तव्य इति
तात्पर्यम्
उक्तं च‘‘तावदेव सुखी जीवो यावन्न स्निह्यते क्वचित् स्नेहानुविद्धहृदयं दुःखमेव
पदे पदे ।।’’ ।।११५।।
अथ स्नेहदोषं द्रष्टान्तेन द्रढयति
२४६) जल-सिंचणु पय-णिद्दलणु पुणु पुणु पीलण-दुक्खु
णेहहँ लग्गिवि तिल-णियरु जंति सहंतउ पिक्खु ।।११६।।
जलसिञ्चन पादनिर्दलनं पुनः पुनः पीडनदुःखम्
स्नेहं लगित्वा तिलनिकरं यन्त्रेण सहमानं पश्य ।।११६।।
भावार्थ :यहाँ भेदाभेदरत्नत्रयरूप मोक्षके मार्गसे विमुख होकर मिथ्यात्व रागादिमें
स्नेह नहीं करना, यह सारांश है क्योंकि ऐसा कहा भी है, कि जब तक यह जीव जगत्से
स्नेह न करे, तब तक सुखी है, और जो स्नेह सहित हैं, जिनका मन स्नेहसे बँध रहा है, उनको
हर जगह दुःख ही है
।।११५।।
आगे स्नेहका दोष दृष्टान्तसे दृढ़ करते हैं
गाथा११६
अन्वयार्थ :[तिलनिकरं ] जैसे तिलोंका समूह [स्नेहं लगित्वा ] स्नेह (चिकनाई)