ज्ञानावरणादि समस्त विभावरूप परद्रव्य हेय छे एवो भावार्थ छे. १५.
ए प्रकारे त्रण प्रकारना आत्माना प्रतिपादक महाधिकारमां संक्षेपथी त्रण प्रकारना
आत्माना सूचननी मुख्यताथी पांच सूत्रो समाप्त थयां.
त्यारपछी मुक्तिगत केवळज्ञानादिनी व्यक्तिरूप सिद्धजीवना व्याख्याननी मुख्यताथी दश
दोहक सूत्रोनो प्रारंभ करवामां आवे छे ते आ प्रमाणेः —
लक्षने (मनने, चित्तने) अलक्ष्यरूपे(परमात्मारूपे) राखीने हरिहरादि विशिष्ट पुरुषो जेनुं
ध्यान करे छे, ते परमात्माने जाण एम कहे छेः —
तु हेयमिति भावार्थः ।।१५।। एवंत्रिविधात्मप्रतिपादकप्रथममहाधिकारमध्ये संक्षेपेण
त्रिविधात्मसूचनमुख्यतया सूत्रपञ्चकं गतम् । तदनन्तरं मुक्ति गतकेवलज्ञानादिव्यक्ति रूप-
सिद्धजीवव्याख्यानमुख्यत्वेन दोहकसूत्रदशकं प्रारभ्यते । तद्यथा ।
लक्ष्यमलक्ष्येण धृत्वा हरिहरादिविशिष्टपुरुषा यं ध्यायन्ति तं परमात्मानं जानीहीति
प्रतिपादयति —
१६) तिहुयण-वंदिउ सिद्धि-गउ हरि-हर झायहिँ जो जि ।
लक्खु अलक्खेँ धरिवि थिरु मुणि परमप्पउ सो जि ।।१६।।
त्रिभुवनवन्दितं सिद्धिगतं हरिहरा ध्यायन्ति यमेव ।
लक्ष्यमलक्ष्येण धृत्वा स्थिरं मन्यस्व परमात्मानं तमेव ।।१६।।
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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-१६
परमात्मा ही ध्यान करने योग्य है और ज्ञानावरणादिरूप सब परवस्तु त्यागने योग्य है, ऐसा
समझना चाहिए ।।१५।।
इस प्रकार जिसमें तीन तरहके आत्माका कथन है, ऐसे प्रथम महाधिकारमें त्रिविध
आत्माके कथनकी मुख्यतासे तीसरे स्थलमें पाँच दोहा-सूत्र कहे । अब मुक्तिको प्राप्त हुए
केवलज्ञानादिरूप सिद्ध परमात्माके व्याख्यानकी मुख्यताकर दश दोहा – सूत्र कहते हैं ।
इसमें पाँच दोहोंमें जो हरिहरादिक बड़े पुरुष अपना मन स्थिरकर जिस परमात्माका
ध्यान करते हैं, उसीका तू भी ध्यान कर, यह कहते हैं —
गाथा – १६
अन्वयार्थ : — [हरिहराः ] इन्द्र, नारायण, और रुद्र वगैरेः बडे़ बड़े पुरुष
[त्रिभुवनवंदितं ] तीनलोककर वंदनीक (त्रैलोक्यनाथ) [सिद्धिगतं ] और केवलज्ञानादि
व्यक्तिरूप सिद्धपनेको प्राप्त [यं एव ] जिस परमात्माको ही [ध्यायन्ति ] ध्यावते हैं, [लक्ष्यं ]