के ‘‘परमार्थनयाय सदा शिवाय नमोऽस्तु ।’’ (अर्थः — परमार्थनयथी सदा शिवने नमस्कार हो.)
वळी कह्युं पण छे के — ‘‘शिवं परमकल्याणं निर्वाणं शान्तमक्षयम् । प्राप्तं मुक्तिपदं येन स शिवः
परिकीर्तितः ।।’’ (अर्थः — जे शिवरूप, परमकल्याणरूप, निर्वाणरूप, शांत, अक्षय छे अने जेणे
मुक्तिपद प्राप्त कर्युं छे ते शिव छे.) ‘‘एक जगत्कर्ता, सर्वव्यापी, सदा मुक्त, शांत, शिव
छे’’ एम अन्य कोईपण माने छे, पण एम नथी.
अहीं आ ज शांत शिवसंज्ञावाळो शुद्ध आत्मा ज उपादेय छे एवो भावार्थ
छे. १८.
हवे पूर्वोक्त निरंजनस्वरूपने त्रण सूत्रोथी प्रगट करे छेः —
शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन शक्ति रूपेणेति । तथा चोक्त म् — ‘‘परमार्थनयाय सदा शिवाय नमोऽस्तु’’ ।
पुनश्चोक्त म् — ‘‘शिवं परमकल्याणं निर्वाणं शान्तमक्षयम् । प्राप्तं मुक्ति पदं येन स शिवः
परिकीर्तितः ।।’’ अन्यः कोऽप्येको जगत्कर्ता व्यापी सदा मुक्त : शान्तः शिवोऽस्तीत्येवं न ।
अत्रायमेव शान्तशिवसंज्ञः शुद्धात्मोपादेय इति भावार्थः ।।१८।।
अथ पूर्वोक्तं निरञ्जनस्वरूपं सूत्रत्रयेण व्यक्तीकरोति —
१९) जासु ण वण्णु ण गंधु रसु जासु ण सद्दु ण फासु ।
जासु ण जम्मणु मरणु णवि णाउ णिरंजणु तासु ।।१९।।
२०) जासु ण कोहु ण मोहु मउ जासु ण माय ण माणु ।
जासु ण ठाणु ण झाणु जिय सो जि णिरंजणु जाणु ।।२०।।
२१) अत्थि ण पुण्णु ण पाउ जसु अत्थि ण हरिसु विसाउ ।
अत्थि ण एक्कु वि दोसु जसु सो जि णिरंजणु भाउ ।।२१।। तियलं ।
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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-१९-२१
हैं, व्यक्तिरूपसे नहीं है । ऐसा कथन अन्य ग्रंथोंमें भी कहा है — ‘शिवमित्यादि’ अर्थात्
परमकल्याणरूप, निर्वाणरूप, महाशांत अविनश्वर ऐसे मुक्ति-पदको जिसने पा लिया है, वही
शिव है, अन्य कोई, एक जगत्कर्ता सर्वव्यापी सदा मुक्त शांत नैयायिकोंका तथा वैशेषिक
आदिका माना हुआ नहीं है । यह शुद्धात्मा ही शांत है, शिव है, उपादेय है ।।१८।।
आगे पहले कहे हुए निरंजनस्वरूपको तीन दोहा-सूत्रोंसे प्रगट करते हैं —