चरितासद्भूतव्यवहारेणाभेदनयेन स्वपरमात्मनोऽभिन्ने स्वदेहे वसति शुद्धनिश्चयनयेन तु भेदनयेन
स्वदेहाद्भिन्ने स्वात्मनि वसति यः तमात्मानं मन्यस्व जानीहि हे जीव
नित्यानन्दैकवीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा भावयेत्यर्थः । किमन्येन शुद्धात्मनो भिन्नेन
देहरागादिना बहुना । अत्र योऽसौ देहे वसन्नपि निश्चयेन देहरूपो न भवति स एव
स्वशुद्धात्मोपादेय इति तात्पर्यार्थः ।।२९।।
अथ जीवाजीवयोरेकत्वं मा कार्षीर्लक्षणभेदेन भेदोऽस्तीति निरूपयति —
३०) जीवाजीव म एक्कु करि लक्खण भेएँ भेउ ।
जो परु सो परु भणमि मुणि अप्पा अप्पु अभेउ ।।३०।।
जीवाजीवौ मा एकौ कुरु लक्षणभेदेन भेदः ।
यत्परं तत्परं भणामि मन्यस्व आत्मन आत्मना अभेदः ।।३०।।
भावार्थः — जे अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनयथी-अभेदनयथी-स्वपरमात्माथी
अभिन्न स्वदेहमां रहे छे अने शुद्ध निश्चयनयथी-भेदनयथी स्वदेहथी भिन्न स्वात्मामां रहे छे,
तेने हे जीव! तुं आत्मा जाण — नित्यानंद जेनुं एक रूप छे एवी वीतराग निर्विकल्प समाधिमां
स्थित थईने भाव. शुद्धात्माथी भिन्न एवा देह रागादि अनेक पदार्थोथी तारे शुं प्रयोजन छे?
अहीं जे देहमां रहेवा छतां पण निश्चयथी देहरूप थतो नथी ते ज स्वशुद्धात्मा उपादेय
छे एवो तात्पर्यार्थ छे. २९.
हवे जीव अने अजीवनुं एकत्व न कर, कारण के लक्षणना भेदथी ते बन्नेमां भेद छे
एम कहे छेः —
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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-३०
भावार्थ : — देहमें रहता हुआ भी निश्चयसे देहस्वरूप जो नहीं होता, वही निज
शुद्धात्मा उपादेय है ।।२९।।
आगे जीव ओर अजीवमें लक्षणके भेदसे भेद है, तू दोनोंको एक मत जान, ऐसा कहते
हैं — हे प्रभाकरभट्ट,
गाथा – ३०
अन्वयार्थ : — [जीवाजीवौ ] जीव और अजीवको [एकौ ] एक [मा कार्षीः ] मत
कर क्योंकि इन दोनोंमें [लक्षणभेदेन ] लक्षणके भेदसे [भेदः ] भेद है [यत्परं ] जो परके
सम्बन्धसे उत्पन्न हुए रागादि विभाव (विकार) हैं, [तत्परं ] उनको पर (अन्य) [मन्यस्व ]