परमात्मविपरीतमानसविकल्पजालरहितत्वादमनस्कः, अतीन्द्रियशुद्धात्मविपरीतेनेन्द्रिय-
ग्रामेण रहितत्वादतीन्द्रियः, लोकालोकप्रकाशक केवलज्ञानेन निर्वृत्तत्वात् ज्ञानमयः, अमूर्तात्म-
विपरीतलक्षणया स्पर्शरसगन्धवर्णवत्या मूर्त्या वर्जितत्वान्मूर्तिविरहितः, अन्यद्रव्यासाधारणया-
शुद्धचेतनया निष्पन्नत्वाच्चिन्मात्रः । कोऽसौ । आत्मा । पुनश्च किंविशिष्टः । वीतराग-
स्वसंवेदनज्ञानेन ग्राह्योऽपीन्द्रियाणामविषयश्च लक्षणमिदं निरुक्तं निश्चितमिति । अत्रोक्त-
लक्षणपरमात्मोपादेय इति तात्पर्यार्थः ।।३१।।
अथ संसारशरीरभोगनिर्विण्णो भूत्वा यः शुद्धात्मानं ध्यायति तस्य संसारवल्ली
नश्यतीति कथयति —
३२) भव-तणु-भोय-विरत्त-मणु जो अप्पा झाएइ ।
तासु गुरुक्की वेल्लडी संसारिणि तुट्टेइ ।।३२।।
भवतनुभोगविरक्तमना य आत्मानं ध्यायति ।
तस्य गुर्वी वल्ली सांसारिकी त्रुटयति ।।३२।।
कहे गये हैं, वही आत्मा है,वही उपादेय है, आराधने योग्य है, यह तात्पर्य निकला ।।३१।।
आगे जो कोई संसार, शरीर, भोगोंसे विरक्त होके शुद्धात्माका ध्यान करता है । उसीके
संसाररूपी बेल नाशको प्राप्त हो जाती है, इसे कहते हैं —
गाथा – ३२
अन्वयार्थ : — [यः ] जो जीव [भवतनुभोगविरक्तमनाः ] संसार, शरीर और भोगोंमें
भावार्थः — आत्मा परमात्माथी विपरीत एवा मानसिक विकल्पजाळथी रहित
होवाथी मनथी रहित छे, अतीन्द्रिय शुद्ध आत्माथी विपरीत इन्द्रियसमूहथी रहित होवाथी
अतीन्द्रिय छे, लोकालोकना प्रकाशक केवळज्ञानथी रचायेलो होवाथी ज्ञानमय छे, अमूर्त
आत्माथी विपरीत लक्षणवाळी स्पर्श, रस, गंध, वर्णरूप मूर्तिथी रहित होवाथी मूर्ति रहित
छे. अन्य द्रव्योनी साथे असाधारण एवी शुद्ध चेतनाथी निष्पन्न होवाथी चिन्मात्र छे अने
वीतराग स्वसंवेदनरूप ज्ञानथी ग्राह्य होवा छतां इन्द्रियोने अगोचर छे. आवुं लक्षण (शुद्ध
आत्मानुं) निश्चितपणे कहेवामां आव्युं छे.
अहीं उक्त लक्षणवाळो परमात्मा ज उपादेय छे एवो तात्पर्यार्थ छे. ३१.
हवे जे संसार, शरीर, अने भोगोथी विरक्त थईने शुद्ध आत्मानुं ध्यान करे छे तेनी
संसारवल्ली नाश पामे छे एम कहे छेः —
अधिकार-१ः दोहा-३२ ]परमात्मप्रकाशः [ ६१