सुखदुःखादिकं निजनिजकार्यं जनयन्ति तथापि शुद्धनिश्चयनयेन अनन्तज्ञानादिस्वरूपं न हृतं न
विनाशितं न चाभिनवं जनितमुत्पादितं किमपि यस्यात्मनस्तं परमात्मानं वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ
स्थित्वा भावयेत्यर्थः । अत्र यदेव कर्मभिर्न हृतं न चोत्पादितं चिदानन्दैकस्वरूपं तदेवोपादेयमिति
तात्पर्यार्थः ।।४८।।
अथ यः कर्मनिबद्धोऽपि कर्मरूपो न भवति कर्मापि तद्रूपं न संभवति तं परमात्मानं
भावयेति कथयति —
४९) कम्म-णिबद्धु वि होइ णवि जो फु डु कम्मु कया वि ।
कम्मु वि जो ण कया वि फु डु सो परमप्पउ भावि ।।४९।।
उपजाता है, गोत्रकर्म ऊँ च नीच गोत्रमें डाल देता है, और अन्तरायकर्म अनंत (बल) को
प्रगट नहीं होने देता । इस प्रकार ये कार्यको करते हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर आत्माका
अनंतज्ञानादिस्वरूपका इन कर्मोंने न तो नाश किया, और न नया उत्पन्न किया,
आत्मा तो जैसा है वैसा ही है । ऐसे अखंड परमात्माको तू वीतरागनिर्विकल्पसमाधिमें
स्थिर होकर ध्यान कर । यहाँ पर यह तात्पर्य है, कि जो जीवपदार्थ कर्मोंसे न हरा
गया, न उपजा, किसी दूसरी तरह नहीं किया गया, वही चिदानन्दस्वरूप उपादेय
है ।।४८।।
इसके बाद जो आत्मा कर्मोंसे अनादिकालका बँधा हुआ है, तो भी कर्मरूप नहीं होता,
और कर्म भी आत्मस्वरूप नहीं होते आत्मा चैतन्य है, कर्म जड़ हैं, ऐसा जानकर उस
परमात्माका तू ध्यान कर, ऐसा कहते हैं —
पोतपोतानां कार्यने उत्पन्न करे छे, तोपण शुद्ध निश्चयनयथी जे आत्मानुं अनंतज्ञानादि स्वरूप
जरा पण विनाश पामतुं नथी के नवुं उत्पन्न थतुं नथी, ते परमात्माने वीतराग निर्विकल्प
समाधिमां स्थित थईने भाव एवो अर्थ छे.
अहीं जे एक (केवळ) चिदानंदस्वरूप कर्मोथी हणातुं नथी, तेमज उत्पन्न करातुं नथी,
ते ज उपादेय छे, एवो तात्पर्यार्थ छे. ४८.
हवे जे कर्मथी बंधायो होवा छतां पण कर्मरूप थतो नथी अने कर्म पण ते रूप
थतुं नथी, ते परमात्माने भाव एम कहे छेः —
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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-४९