अथ शुद्धात्मविलक्षणे देहे वसन्नपि देहं न स्पृशति देहेन सोऽपि न स्पृश्यत इति
प्रतिपादयति —
३४) देहे वसंतु वि णवि छिवइ णियमेँ देहु वि जो जि ।
देहेँ छिप्पइ जो वि णवि मुणि परमप्पउ सो जि ।।३४।।
देहे वसन्नपि नैव स्पृशति नियमेन देहमपि य एव ।
देहेन स्पृश्यते योऽपि नैव मन्यस्व परमात्मानं तमेव ।।३४।।
देहे वसन्नपि नैव स्पृशति नियमेन देहमपि, य एव देहेन न स्पृश्यते योऽपि मन्यस्व
जानीहि परमात्मा सोऽपि । इतो विशेषः — शुद्धात्मानुभूतिविपरीतेन क्रोधमानमायालोभ-
स्वरूपादिविभावपरिणामेनोपार्जितेन पूर्वकर्मणा निर्मिते देहे अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण वसन्नपि
निश्चयेन य एव देहं न स्पृशति, तथाविधदेहेन न स्पृश्यते योऽपि तं मन्यस्व जानीहि परमात्मानं
आगे शुद्धात्मासे भिन्न इस देहमें रहता हुआ भी देहको नहीं स्पर्श करता है और देह
भी उसको नहीं छूती है, यह कहते हैं —
गाथा – ३४
अन्वयार्थ : — [य एव ] जो [देहे वसन्नपि ] देहमें रहता हुआ भी [नियमेन ]
निश्चयनयकर [देहमपि ] शरीरको [नैव स्पृशति ] नहीं स्पर्श करता, [देहेन ] देहसे [यः
अपि ] वह भी [नैव स्पृश्यते ] नहीं छुआ जाता । अर्थात् न तो जीव देहको स्पर्श करता और
न देह जीवको स्पर्श करती, [तमेव ] उसीको [परमात्मानं ] परमात्मा [मन्यस्व ] तूँ जान,
अर्थात् अपना स्वरूप ही परमात्मा है ।
भावार्थ : — जो शुद्धात्माकी अनुभूतिसे विपरीत क्रोध, मान, माया, लोभरूप विभाव
परिणाम हैं, उनकर उपार्जन किये शुभ-अशुभ कर्मोंकर बनाई हुई देहमें अनुपचरितअसद्भूत-
व्यवहारनयकर बसता हुआ भी निश्चयकर देहको नहीं छूता, उसको तुम परमात्मा जानो, उसी
have shuddhAtmAthI vilakShaN dehamAn rahevA chhatAn paN AtmA dehane sparshato nathI ane te
paN dehathI sparshAto nathI em kahe chhe —
bhAvArtha — je shuddha AtmAnI anubhUtithI viparIt krodh-mAn-mAyA-lobhasvarUp
Adi vibhAvapariNAmathI upArjit pUrvakarmathI rachAyel dehamAn anupacharit asadbhUt-
vyavahAranayathI rahevA chhatAn paN nishchayathI je dehane sparshato nathI, te paramAtmAne ja
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yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-34