व्यवहारनयेन शुद्धात्मविपरीते देहे वसता स्पर्शनादीन्द्रियग्रामो वसति, स्वसंवित्त्यभावे
स्वकीयविषये प्रवर्तत इत्यर्थः । उद्वसो भवति गतेन स एवेन्द्रियग्रामो यस्मिन् भवान्तरगते
सत्युद्वसो भवति स्वकीयविषयव्यापाररहितो भवति स्फु टं निश्चितं स एवंलक्षण-
श्चिदानन्दैकस्वभावः परमात्मा भवतीति । अत्र य एवातीन्द्रियसुखास्वादसमाधिरतानां मुक्ति -
कारणं भवति स एव सर्वप्रकारोपादेयातीन्द्रियसुखसाधकत्वादुपादेय इति भावार्थः ।।४४।।
अथ यः पञ्चेन्द्रियैः पञ्चविषयान् जानाति स च तैर्न ज्ञायते स परमात्मा भवतीति
निरूपयति —
४५) जो णिय-करणहिँ पंचहिँ वि पंच वि विसय मुणेइ ।
मुणिउ ण पंचहिँ पंचहिँ वि सो परमप्पु हवेइ ।।४५।।
यः निजकरणैः पञ्चभिरपि पञ्चापि विषयान् जानाति ।
ज्ञातः न पञ्चभिः पञ्चभिरपि स परमात्मा भवति ।।४५।।
रुक जाती हैं, ऐसा चिदानन्द निज आत्मा वही परमात्मा है । अतीन्द्रियसुखके आस्वादी
परमसमाधिमें लीन हुए मुनियोंको ऐसे परमात्माका ध्यान ही मुक्तिका कारण है , वही
अतीन्द्रियसुखका साधक होनेसे सब तरह उपादेय है ।।४४।।
आगे जो पाँच इन्द्रियोंसे पाँच विषयोंको जानता है, और आप इन्द्रियोंके गोचर नहीं
होता है, वही परमात्मा है, यह कहते हैं —
गाथा – ४५
अन्वयार्थ : — [यः ] जो आत्माराम शुद्धनिश्चयनयकर अतीन्द्रिय ज्ञानमय है तो भी
अनादि बंधके कारण व्यवहारनयसे इन्द्रियमय शरीरको ग्रहणकर [निजकरणैः पञ्चभिरपि ]
svarUpI hovA chhatAn paN je AtmA vyavahAranayathI shuddha AtmAthI viparIt dehamAn rahetAn,
sparshanAdi indriyagAm vase chhe, arthAt svasamvedananA abhAvamAn te indriyo (sparshanAdi)
potapotAnA viShayamAn pravarte chhe ane je bhavAntaramAn jatAn te indriyagAm ujjaD thAy chhe arthAt
te potapotAnA viShayanA vyApArathI rahit thAy chhe, te nishchayathI chidAnand jeno ek svabhAv
chhe evo paramAtmA chhe.
ahIn je atIndriy sukhanA AsvAdarUp samAdhimAn rat thayelAone muktinun kAraN chhe,
te ja (te paramAtmA ja) sarva prakAre upAdeyabhUt atIndriy sukhano sAdhak hovAthI upAdey chhe,
evo bhAvArtha chhe. 44.
78 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-45