Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (iso15919 transliteration).

< Previous Page   Next Page >


Page 93 of 565
PDF/HTML Page 107 of 579

background image
Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
śrī digaṁbar jain svādhyāyamaṁdir ṭrasṭa, sonagaḍh - 364250
तस्यावरणाभावेऽपि प्रकाशविस्तारो घटते एव जीवस्य पुनरनादिकर्मप्रच्छादितत्वात्पूर्वं स्वभावेन
विस्तारो नास्ति किंरूपसंहारविस्तारौ शरीरनामकर्मजनितौ तेन कारणेन शुष्कमृत्तिका-
भाजनवत् कारणाभावादुपसंहारविस्तारौ न भवतः चरमशरीरप्रमाणेन तिष्ठतीति अत्र य एव
मुक्त ौ शुद्धबुद्धस्वभावः परमात्मा तिष्ठति तत्सद्रशो रागादिरहितकाले स्वशुद्धात्मोपादेय इति
भावार्थः ।।५४।।
paṇ jaḷano abhāv thavāthī) śuṣka māṭīnā vāsaṇamāṁ vadh-ghaṭ thatī nathī tevī rīte kāraṇano
abhāv thatāṁ jīvanā pradeśono saṁkoc-vistār thato nathī, jīvanā pradeśo ‘caramaśarīrapramāṇ’ ja
rahe che.
ahīṁ muktimāṁ śuddha, buddha ek jeno svabhāv che evo paramātmā birāje che tenā jevo
ja rāgādirahit samaye svaśuddha ātmā ja upādey che evo bhāvārtha che. 54.
आत्माके प्रदेश लोक-प्रमाण फै लने चाहिये, शरीर-प्रमाण ही क्यों रह गये ? उसका
समाधान यह है, कि दीपकके प्रकाशका जो विस्तार है, वह स्वभावसे होता है, परसे नहीं
उत्पन्न हुआ, पीछे भाजन आदिसे अथवा दूसरे आवरणसे आच्छादन किया गया, तब वह
प्रकाश संकोचको प्राप्त हो जाता है, जब आवरणका अभाव होता है, तब प्रकाश विस्ताररूप
हो जाता है, इसमें संदेह नहीं और जीवका प्रकाश अनादिकालसे कर्मोंसे ढका हुआ है,
पहले कभी विस्ताररूप नहीं हुआ
शरीर-प्रमाण ही संकोचरूप और विस्ताररूप हुआ,
इसलिये जीवके प्रदेशोंका प्रकाश संकोच विस्ताररूप शरीरनामकर्मसे उत्पन्न हुआ है, इस
कारण सूखी मिट्टीके बर्तनकी तरह कारणके अभावसे संकोच-विस्ताररूप नहीं होता, शरीर
-प्रमाण ही रहता है, अर्थात् जबतक मिट्टीका बर्तन जलसे गीला रहता है, तबतक जलके
सम्बन्धसे वह घट बढ़ जाता है, और जब जलका अभाव हुआ, तब बर्तन सूख जानेसे
घटता बढ़ता नहीं है
जैसेका तैसा रहता है उसी तरह इस जीवके जबतक नामकर्मका
संबंध है, तबतक संसार-अवस्थामें शरीरकी हानि-वृद्धि होती है, उसकी हानि-वृद्धिसे प्रदेश
सिकुड़ते हैं और फै लते हैं
तथा सिद्ध-अवस्थामें नामकर्मका अभाव हो जाता है, इस
कारण शरीरके न होनेसे प्रदेशोंका संकोच विस्तार नहीं होता, सदा एकसे ही रहते हैं जिस
शरीरसे मुक्त हुआ, उसी प्रमाण कुछ कम रहता है दीपकका प्रकाश तो स्वभावसे उत्पन्न
है, इससे आवरणसे आच्छादित हो जाता है जब आवरण दूर हो जाता है, तब प्रकाश
सहज ही विस्तरता है यहाँ तात्पर्य है, कि जो शुद्ध बुद्ध (ज्ञान) स्वभाव परमात्मा मुक्तिमें
तिष्ठ रहा है, वैसा ही शरीरमें भी विराज रहा है जब रागका अभाव होता है, उस कालमें
यह आत्मा परमात्माके समान है, वही उपादेय है ।।५४।।
adhikār-1 : dohā-54 ]paramātmaprakāś: [ 93