saddharmanun shravaṇ, grahaṇ, dhāraṇ, shraddhān, sanyam, viṣhayasukhathī vyāvartan, krodhādi kaṣhāyathī
nivartan ā sarva uttarottar ekabījāthī durlabh chhe.1.....
ā badhāthī shuddhātmabhāvanāsvarūp vītarāg nirvikalpa samādhinī prāpti atyant durlabh chhe;
vītarāg nirvikalpa samādhirūp bodhithī pratipakṣhabhūt mithyātva, viṣhay, kaṣhāy ādi
vibhāvapariṇāmonī prabaḷatā chhe tethī samyagdarshan, samyaggnān ane samyakchāritranī prāpti thatī
nathī. temanun pāmavun te bodhi chhe ane temanun ja nirvighnapaṇe bhavāntaramān dhārī rākhavun te samādhi
chhe. ā pramāṇe bodhi ane samādhinun lakṣhaṇ yathāsambhav sarvatra jāṇavun.
kahyun chhe keḥ —
व्यावर्तनक्रोधादिकषायनिवर्तनेषु परंपरया दुर्लभेषु । कथंभूतेषु । लब्धेष्वपि तपोभावनाधर्मेषु
१शुद्धात्मभावनाधर्मेषु शुद्धात्मभावनालक्षणस्य वीतरागनिर्विकल्पसमाधिदुर्लभत्वात् । तदपि
कथम् । वीतरागनिर्विकल्पसमाधिबोधिप्रतिपक्षभूतानां मिथ्यात्वविषयकषायादिविभावपरिणामानां
प्रबलत्वादिति । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामप्राप्तप्रापणं बोधिस्तेषामेव निर्विघ्नेन भवान्तरप्रापणं
adhikār-1ḥ dohā-9 ]paramātmaprakāshaḥ [ 29
नीरोग, जैनधर्म इनका उत्तरोत्तर मिलना कठिन है । कभी इतनी वस्तुओंकी भी प्राप्ति हो
जावे, तो श्रेष्ठ बुद्धि, श्रेष्ठ धर्म-श्रवण, धर्मका ग्रहण, धारण, श्रद्धान, संयम, विषय-सुखोंसे
निवृत्ति, क्रोधादि कषायोंका अभाव होना अत्यंत दुर्लभ है और इन सबोंसे उत्कृष्ट
शुद्धात्मभावनारूप वीतरागनिर्विकल्प समाधिका होना बहुत मुश्किल है, क्योंकि उस
समाधिके शत्रु जो मिथ्यात्व, विषय, कषाय, आदिका विभाव परिणाम हैं, उनकी प्रबलता
है । इसीलिये सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी प्राप्ति नहीं होती और इनका पाना ही बोधि है,
उस बोधिका जो निर्विषयपनेसे धारण वही समाधि है । इस तरह बोधि समाधिका लक्षण
सब जगह जानना चाहिये । इस बोधि समाधिका मुझमें अभाव है, इसीलिये संसार-समुद्रमें
भटकते हुए मैंने वीतराग परमानंद सुख नहीं पाया, किन्तु उस सुखसे विपरीत (उल्टा)
आकुलताके उत्पन्न करनेवाला नाना प्रकारका शरीरका तथा मनका दुःख ही चारों गतियोंमें
भ्रमण करते हुए पाया । इस संसार-सागरमें भ्रमण करते मनुष्य-देह आदिका पाना बहुत
दुर्लभ है, परंतु उसको पाकर कभी (आलसी) नहीं होना चाहिये । जो प्रमादी हो जाते
हैं, वे संसाररूपी वनमें अनंतकाल भटकते हैं । ऐसा ही दूसरे ग्रंथोंमें भी कहा है —
1. शुद्धात्मभावनाधर्मेषु शुद्धात्मभावनालक्षणस्य वीत=शुद्धात्मभावनालक्षणवीत
2. je sanskr̥it ṭīkāno artha samajāṇo nathī teno artha lakhyo nathī.