Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
shrI diga.nbar jain svAdhyAyama.ndir TrasTa, sonagaDh - 364250
adhikAr-2 : dohA-74 ]paramAtmaprakAsh: [ 343
२०१) णाण-विहीणहँ मोक्ख-पउ जीव म कासु वि जोइ ।
बहुएँ सलिल-विरोलियइँ करु चोप्पडउ ण होइ ।।७४।।
ज्ञानविहीनस्य मोक्षपदं जीव मा कस्यापि अद्राक्षीः ।
बहुना सलिलविलोडितेन करः चिक्कणो न भवति ।।७४।।
णाण इत्यादि । णाण-विहीणहं ख्यातिपूजालाभादिदुष्टभावपरिणतचित्तं मम कोऽपि न
जानातीति मत्वा वीतरागपरमानन्दैकसुखरसानुभवरूपं चित्तशुद्धिमकुर्वाणस्य बहिरङ्गबकवेषेण
लोकरञ्जनं मायास्थानं तदेव शल्यं तत्प्रभृतिसमस्तविकल्पकल्लोलमालात्यागेन निजशुद्धात्म-
संवित्तिनिश्चयेन संज्ञानेन सम्यग्ज्ञानेन विना मोक्ख-पउ मोक्षपदं स्वरूपं जीव हे जीव म कासु
वि जोइ मा कस्याप्यद्राक्षीः ।द्रष्टान्तमाह । बहुएं सलिल विरोलियइं बहुनापि सलिलेन
bhAvArtha: — jevI rIte pANIne khUb valovavAmA.n Ave topaN hAth chIkaNo thato nathI tevI
rIte he jIv! khyAti, pUjA, lAbh Adi duShTa bhAvorUpe pariNat mArA chittane koI paN jANatu.n
nathI. em mAnIne ek (kevaL) vItarAg paramAna.ndarUp, sukharasanA anubhavarUp, chittashuddhine na
karanAr koIne paN, bahArathI bagalA jevA veShathI lokara.njan karavArUp, mAyAsthAnarUp, shalyathI
mA.nDIne samasta vikalpanI tara.ngamALAnA tyAgarUp, nijashuddhAtma-sa.nvittinI ekAgratArUp je sa.nj~nAn
Che te samyagj~nAn vinA mokShapad – mokShanu.n svarUp – na dekh.
ahI.n, jevI rIte pANIne khUb mathavA ChatA.n paN hAth snigdha thato nathI tevI rIte
गाथा – ७४
अन्वयार्थ : — [ज्ञानविहीनस्य ] जो सम्यग्ज्ञानकर रहित मलिन चित्त है, अर्थात्
अपनी बड़ाई, प्रतिष्ठा, लाभादि, दुष्ट भावोंसे जिसका चित्त परिणत हुआ है, और मनमें ऐसा
जानता है, कि हमारी दुष्टताको कोई नहीं जान सकता, ऐसा समझकर वीतराग परमानंद
सुखरसके अनुभवरूप चित्तकी शुद्धिको नहीं करता, तथा बाहरसे बगुलाकासा भेष मायाचाररूप
लोकरंजनके लिये धारण किया है, यही सत्य है, इसी भेषसे हमारा कल्याण होगा, इत्यादि
अनेक विकल्पोंकी कल्लोलोंसे अपवित्र है, ऐसे [कस्यापि ] किसी अज्ञानीके [मोक्षपदं ]
मोक्ष – पदवी [जीव ] हे जीव, [मा द्राक्षीः ] मत देख अर्थात् बिना सम्यग्ज्ञानके मोक्ष नहीं
होता । उसका दृष्टांत कहते हैं । [बहुना ] बहुत [सलिलविलोडितेन ] पानीके मथनेसे भी
[करः ] हाथ [चिक्कणो ] चीकना [न भवति ] नहीं होता । क्योंकि जलमें चिकनापन है ही
नहीं । जैसे जलमें चिकनाई नहीं है, वैसे बाहिरी भेषमें सम्यग्ज्ञान नहीं है । सम्यग्ज्ञानके बिना