Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (itrans transliteration). Gatha-76 (Adhikar 2).

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
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346 ]yogIndudevavirachit: [ adhikAr-2 : dohA-76
अथ येन मिथ्यात्वरागादिवृद्धिर्भवति तदात्मज्ञानं न भवतीति निरूपयति
२०३) तं णिय-णाणु जि होइ ण वि जेण पवड्ढइ राउ
दिणयर-किरणहँ पुरउ जिय किं विलसइ तम-राउ ।।७६।।
तत् निजज्ञानमेव भवति नापि येन प्रवर्धते रागः
दिनकरकिरणानां पुरतः जीव किं विलसति तमोरागः ।।७६।।
तं इत्यादि तं तत् णिय-णाणु जि होइ ण वि निजज्ञानमेव न भवति
वीतरागनित्यानन्दैकस्वभावनिजपरमात्मतत्त्वपरिज्ञानमेव न भवति येन ज्ञानेन किं भवति जेण
पवड्ढइ येन प्रवर्धते कोऽसौ राउ शुद्धात्मभावनासमुत्पन्नवीतरागपरमानन्दप्रतिबन्धक-
पञ्चेन्द्रियविषयाभिलाषरागः अत्र द्रष्टान्तमाह दिणयर-किरणहं पुरउ जिय दिनकरकिरणानां
have, jenA vaDe mithyAtva, rAgAdinI vR^iddhi thAy Che te Atmaj~nAn nathI, em kahe Che :
bhAvArtha:je j~nAn vaDe shuddhAtmabhAvanAthI utpanna evA vItarAg paramAna.ndanA
pratiba.ndhak pA.nch indriyonA viShayonI abhilAShArUp rAganI vR^iddhi thAy te nij j~nAn nathI.
vItarAg nityAna.nd ja jeno ek svabhAv Che evA nij paramAtmatattvanu.n j~nAn ja nathI. ahI.n
draShTA.nt kahe Che. sUryanA kiraNonI sAme shu.n a.ndhakArano phelAv shobhe Che? nathI shobhato.
आगे जिससे मिथ्यात्व रागादिककी वृद्धि हो, वह आत्मज्ञान नहीं है, ऐसा निरूपण
करते हैं
गाथा७६
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, [तत् ] वह [निजज्ञानम् एव ] वीतराग नित्यानंद
अखंडस्वभाव परमात्मतत्त्वका परिज्ञान ही [नापि ] नहीं [भवति ] है, [येन ] जिससे [रागः ]
परद्रव्यमें प्रीति [प्रवर्धते ] बढ़े, [दिनकरकिरणानां पुरतः ] सूर्यकी किरणोंके आगे
[तमोरागः ] अन्धकारका फै लाव [किं विलसति ] कैसे शोभायमान हो सकता है ? नहीं हो
सकता
भावार्थ :शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न जो वीतराग परम आनंद उसके शत्रु
पंचेन्द्रियोंके विषयोंकी अभिलाषी जिसमें हो, वह निज (आत्म) ज्ञान नहीं है, अज्ञान ही है
जिस जगह वीतरागभाव है, वही सम्यग्ज्ञान है इसी बातको दृष्टांत देकर दृढ़ करते हैं, सो सुनो
हे जीव, जैसे सूर्यके प्रकाशके आगे अन्धेरा नहीं शोभा देता, वैसे ही आत्मज्ञानमें विषयोंकी