Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
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adhikAr-2 : dohA-83 ]paramAtmaprakAsh: [ 355
प्रदीपस्त्यज्यते तथा शुद्धात्मतत्त्वप्रतिपादकशास्त्रेण शुद्धात्मतत्त्वं ज्ञात्वा गृहीत्वा च प्रदीपस्थानीयः
शास्त्रविकल्पस्त्यज्यत इति ।।८२।।
अथ योऽसौ शास्त्रं पठन्नपि विकल्पं च मुञ्चति निश्चयेन देहस्थं शुद्धात्मानं न
मन्यते स जडो भवतीति प्रतिपादयति —
२१०) सत्थु पढंतु वि होइ जडु जो ण हणेइ वियप्पु ।
देहि वसंतु वि णिम्मलउ णवि मण्णइ परमप्पु ।।८३।।
शास्त्रं पठन्नपि भवति जडः यः न हन्ति विकल्पम् ।
देहे वसन्तमपि निर्मलं नैव मन्यते परमात्मानम् ।।८३।।
सत्थु इत्यादि । सत्थु पढंतु वि शास्त्रं पठन्नपि होइ जडु स जडो भवति यः किं करोति ।
dIvo ChoDI devAmA.n Ave Che, tevI rIte shuddha AtmatattvanA pratipAdak shAstrathI shuddha Atmatattvane
jANIne ane grahIne pradIpasthAnIy shAstranA vikalpane ChoDavAmA.n Ave Che. 82.
have, je koI shAstrane bhaNIne paN vikalpane ChoDato nathI ane nishchayanayathI dehamA.n rahelA
shuddha AtmAne mAnato nathI te jaD Che, em kahe Che : —
bhAvArtha: — je jIv shAstrane jANavA ChatA.n paN shAstranA abhyAsanu.n phaL rAgAdi
देते हैं, उसी तरह शुद्धात्मतत्त्वके उपदेश करनेवाले जो अध्यात्मशास्त्र उनसे शुद्धात्मतत्त्वको
जानकर उस शुद्धात्मतत्त्वका अनुभव करना चाहिए, और शास्त्रका विकल्प छोड़ना चाहिए ।
शास्त्र तो दीपकके समान हैं, तथा आत्मवस्तु रत्नके समान है ।।८२।।
आगे जो शास्त्रको पढ़ करके भी विकल्पको नहीं छोड़ता, और निश्चयसे शुद्धात्माको
नहीं मानता जो कि शुद्धात्मदेव देहरूपी देवालयमें मौजूद है, उसे न ध्यावता है, वह मूर्ख है,
ऐसा कहते हैं —
गाथा – ८३
अन्वयार्थ : — [यः ] जो जीव [शास्त्रं ] शास्त्रको [पठन्नपि ] पढ़ता हुआ भी
[विकल्पम् ] विकल्पको [न ] [हंति ] नहीं दूर करता, (मेंटता) वह [जडो भवति ] मूर्ख
है, जो विकल्प नहीं मेंटता, वह [देहे ] शरीरमें [वसंतमपि ] रहते हुए भी [निर्मलं
परमात्मानम् ] निर्मल परमात्माको [नैव मन्यते ] नहीं श्रद्धानमें लाता ।
भावार्थ : — शास्त्रके अभ्यासका तो फ ल यह है, कि रागादि विकल्पोंको दूर करना,