Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
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adhikAr-2 : dohA-101 ]paramAtmaprakAsh: [ 385
स्वभावैकाचिन्त्याद्भुतकेवलज्ञानादिगुणास्पदं निर्वाणं लभन्त इति । अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञात्वा
रागद्वेषौ त्यक्त्वा च शुद्धात्मानुभूतिरूपा समभावना कर्तव्येत्यभिप्रायः ।।१००।।
अथ सर्वजीवसाधारणं केवलज्ञानदर्शनलक्षणं प्रकाशयति —
२२८) जीवहँ दंसणु णाणु जिय लक्खणु जाणइ जो जि ।
देह – विभेएँ भेउ तहँ णाणि कि मण्णइ सो जि ।।१०१।।
जीवानां दर्शनं ज्ञानं जीव लक्षणं जानाति य एव ।
देहविभेदेन भेदं तेषां ज्ञानी किं मन्यते तमेव ।।१०१।।
जीवहं इत्यादि । जीवहं जीवानां दंसणु णाणु जगत्त्रयकालत्रयवर्तिसमस्तद्रव्यगुणपर्यायाणां
क्रमकरणव्यवधानरहितत्वेन परिच्छित्तिसमर्थं विशुद्धदर्शनं ज्ञानं च । जिय हे जीव लक्खणु जाणइ जो
ahI.n, A kathan jANIne ane rAg-dveShane tyAgIne shuddhAtmAnI anubhUtirUp
samabhAvanA karavI, evo abhiprAy Che. 100.
have, kevaLadarshan ane kevaLaj~nAn sarva jIvonu.n sAdhAraN (sAmAnya) lakShaN Che, em
pragaT kare Che (koIpaN jIv enA vinAno nathI. sarva jIvomA.n e guNo shaktirUpe hoy
Che, em kahe Che.) : —
bhAvArtha: — traN lok ane traN kALavartI samasta dravyaguN paryAyone kram, kAraN ane
मोक्षस्थान, जो अत्यंत अद्भुत अचिंत्य केवलज्ञानादि अनन्त गुणोंका स्थान है । यहाँ यह
व्याख्यान जानकर राग-द्वेषको छोड़के शुद्धात्माके अनुभवरूप जो समभाव उसका सेवन सदा
करना चाहिए । यही इस ग्रंथका अभिप्राय है ।।१००।।
आगे सब जीवोंमें केवलज्ञान और केवलदर्शन साधारण लक्षण हैं, इनके बिना कोई
जीव नहीं है । ये गुण शक्तिरूप सब जीवोंमें पाये जाते हैं, ऐसा कहते हैं —
गाथा – १०१
अन्वयार्थ : — [जीवानां ] जीवोंके [दर्शनं ज्ञानं ] दर्शन और ज्ञान [लक्षणं ] निज
लक्षण को [य एव ] जो कोई [जानाति ] जानता है, [जीव ] हे जीव, [स एव ज्ञानी ] वही
ज्ञानी [देहविभेदेन ] देहके भेदसे [तेषां भेदं ] उन जीवोंके भेद को [किं मन्यते ] क्या मान
सकता है, नहीं मान सकता ।
भावार्थ : — तीन लोक और तीन कालवर्त्ती समस्त द्रव्य गुण पर्यायोंको एक ही