Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
shrI diga.nbar jain svAdhyAyama.ndir TrasTa, sonagaDh - 364250
adhikAr-2 : dohA-107 ]paramAtmaprakAsh: [ 393
जीवहं इत्यादि । जीवहं जीवानां भेउ जि भेद एव कम्म-किउ निर्भेदशुद्धात्मविलक्षणेन
कर्मणा कृतः, कम्मु वि जीउ ण होइ ज्ञानावरणादिकर्मैव विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावं जीवस्वरूपं
न भवति । कस्मान्न भवतीति चेत् । जेण विभिण्णउ होइ तहं येन कारणेन विभिन्नो भवति
तेभ्यः कर्मभ्यः । किं कृत्वा । कालु लहेविणु कोइ वीतरागपरमात्मानुभूतिसहकारिकारणभूतं
कमपि कालं लब्ध्वेति । अयमत्र भावार्थः । टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकशुद्धजीवस्वभावाद्विलक्षणं
मनोज्ञामनोज्ञस्त्रीपुरुषादिजीवभेदं द्रष्ट्वा रागाद्यपध्यानं न कर्तव्यमिति ।।१०६।।
अतः कारणात् शुद्धसंग्रहेण भेदं मा कार्षीरिति निरूपयति —
२३४) एक्कु करे मण बिण्णि करि मं करि वण्ण – विसेसु ।
इक्कइँ देवइँ जेँ वसह तिहुयणु एहु असेसु ।।१०७।।
एकं कु रु मा द्वौ कुरु मा कुरु वर्णविशेषम् ।
एकेन देवेन येन वसति त्रिभुवनं एतद् अशेषम् ।।१०७।।
bhAvArtha: — mAtra (kevaL) Ta.nkotkIrNa j~nAyak shuddha jIvasvabhAvathI vilakShaN manoj~na,
amanoj~na strI puruSh AdirUp jIvanA bhed joIne rAgAdirUp apadhyAn na karavu.n. 106.
tethI, shuddhasa.ngrahanayathI tu.n jIvomA.n bhed na kar, em kahe Che : —
भावार्थ : — कर्म शुद्धात्मासे जुदे हैं, शुद्धात्मा भेद – कल्पनासे रहित है । ये
शुभाशुभकर्म जीवका स्वरूप नहीं हैं, जीवका स्वरूप तो निर्मल ज्ञान दर्शन स्वभाव है ।
अनादिकालसे यह जीव अपने स्वरूपको भूल रहा है, इसलिये रागादि अशुद्धोपयोगसे कर्मको
बाँधता है । सो कर्मका बंध अनादिकालका है । इस कर्मबंधसे कोई एक जीव वीतराग
परमात्माकी अनुभूतिके सहकारी कारणरूप जो सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका समय उसको पाकर उन
कर्मोंसे जुदा हो जाता है । कर्मोंसे छूटनेका यही उपाय है, जो जीवके भवस्थिति समीप (थोड़ी)
रही हो, तभी सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, और सम्यक्त्व उत्पन्न हो जावे, तभी कर्म – कलंकसे
छूट जाता है । तात्पर्य यह है कि जो टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक शुद्ध स्वभाव उससे विलक्षण
जो स्त्री, पुरुषादि शरीरके भेद उनको देखकर रागादि खोटे ध्यान नहीं करने चाहिये ।।१०६।।
आगे ऐसा कहते हैं, कि तू शुद्ध संग्रहनयकर जीवोंमें भेद मत कर —
गाथा – १०७
अन्वयार्थ : — [एकं कुरु ] हे आत्मन्, तू जातिकी अपेक्षा सब जीवोंको एक जान,