Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
shrI diga.nbar jain svAdhyAyama.ndir TrasTa, sonagaDh - 364250
saddharmanu.n shravaN, grahaN, dhAraN, shraddhAn, sa.nyam, viShayasukhathI vyAvartan, krodhAdi kaShAyathI
nivartan A sarva uttarottar ekabIjAthI durlabh Che.1.....
A badhAthI shuddhAtmabhAvanAsvarUp vItarAg nirvikalpa samAdhinI prApti atya.nt durlabh Che;
vItarAg nirvikalpa samAdhirUp bodhithI pratipakShabhUt mithyAtva, viShay, kaShAy Adi
vibhAvapariNAmonI prabaLatA Che tethI samyagdarshan, samyagj~nAn ane samyakchAritranI prApti thatI
nathI. temanu.n pAmavu.n te bodhi Che ane temanu.n ja nirvighnapaNe bhavAntaramA.n dhArI rAkhavu.n te samAdhi
Che. A pramANe bodhi ane samAdhinu.n lakShaN yathAsa.nbhav sarvatra jANavu.n.
kahyu.n Che ke : —
व्यावर्तनक्रोधादिकषायनिवर्तनेषु परंपरया दुर्लभेषु । कथंभूतेषु । लब्धेष्वपि तपोभावनाधर्मेषु
१शुद्धात्मभावनाधर्मेषु शुद्धात्मभावनालक्षणस्य वीतरागनिर्विकल्पसमाधिदुर्लभत्वात् । तदपि
कथम् । वीतरागनिर्विकल्पसमाधिबोधिप्रतिपक्षभूतानां मिथ्यात्वविषयकषायादिविभावपरिणामानां
प्रबलत्वादिति । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामप्राप्तप्रापणं बोधिस्तेषामेव निर्विघन्ेन भवान्तरप्रापणं
adhikAr-1 : dohA-9 ]paramAtmaprakAsh: [ 29
नीरोग, जैनधर्म इनका उत्तरोत्तर मिलना कठिन है । कभी इतनी वस्तुओंकी भी प्राप्ति हो
जावे, तो श्रेष्ठ बुद्धि, श्रेष्ठ धर्म-श्रवण, धर्मका ग्रहण, धारण, श्रद्धान, संयम, विषय-सुखोंसे
निवृत्ति, क्रोधादि कषायोंका अभाव होना अत्यंत दुर्लभ है और इन सबोंसे उत्कृष्ट
शुद्धात्मभावनारूप वीतरागनिर्विकल्प समाधिका होना बहुत मुश्किल है, क्योंकि उस
समाधिके शत्रु जो मिथ्यात्व, विषय, कषाय, आदिक ा विभाव परिणाम हैं, उनकी प्रबलता
है । इसीलिये सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी प्राप्ति नहीं होती और इनका पाना ही बोधि है,
उस बोधिका जो निर्विषयपनेसे धारण वही समाधि है । इस तरह बोधि समाधिका लक्षण
सब जगह जानना चाहिये । इस बोधि समाधिका मुझमें अभाव है, इसीलिये संसार-समुद्रमें
भटकते हुए मैंने वीतराग परमानंद सुख नहीं पाया, किन्तु उस सुखसे विपरीत (उल्टा)
आकुलताके उत्पन्न करनेवाला नाना प्रकारका शरीरका तथा मनका दुःख ही चारों गतियोंमें
भ्रमण करते हुए पाया । इस संसार-सागरमें भ्रमण करते मनुष्य-देह आदिका पाना बहुत
दुर्लभ है, परंतु उसको पाकर कभी (आलसी) नहीं होना चाहिये । जो प्रमादी हो जाते
हैं, वे संसाररूपी वनमें अनंतकाल भटकते हैं । ऐसा ही दूसरे ग्रंथोंमें भी कहा है —
1. शुद्धात्मभावनाधर्मेषु शुद्धात्मभावनालक्षणस्य वीत=शुद्धात्मभावनालक्षणवीत
2. je sa.nskR^it TIkAno artha samajANo nathI teno artha lakhyo nathI.