Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (itrans transliteration). Gatha-123 (Adhikar 2).

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
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adhikAr-2 : dohA-123 ]paramAtmaprakAsh: [ 419
evA shArIrik ane mAnasik duHkhone sahan karato thako, choryAshI lAkh yoniomA.n paribhramaN
kare Che tethI te mahAn j~nAn ja nira.ntar bhAvavu.n, e abhiprAy Che. 122.
have, he jIv! tu.n ghar, parivAr ane sharIrAdi upar mamatva na kar, em sa.nbodhan kare
Che :
bhAvArtha:ghar, parijan, sharIr ane mitrAdine potAnA.n na jAN, kAraN ke teo
यावत्कालं न किम् णाणु ज्ञानम् किं विशिष्टम् महंतु महतो मोक्षलक्षणस्यार्थस्य
साधकत्वाद्वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानं महदित्युच्यते तेन कारणेन तदेव निरन्तरं
भावनीयमित्यभिप्रायः ।।१२२।।
अथ हे जीव गृहपरिजनशरीरादिममत्वं मा कुर्विति संबोधयति
२५३) जीव म जाणहि अप्पणउँ घरु परियणु तणु इट्ठु
कम्मायत्तउ कारिमउ आगमि जोइहिँ दिट्ठु ।।१२३।।
जीव मा जानीहि आत्मीयं गृहं परिजनं तनुः इष्टम्
कर्मायत्तं कृत्रिमं आगमे योगिभिः द्रष्टम् ।।१२३।।
जीव इत्यादि जीव म जाणहि हे जीव मा जानीहि अप्पणउं आत्मीयम् किम्
घरु परियणु तणु इट्ठु गृहं परिजनं शरीरमिष्टमित्रादिकम् कथंभूतमेतत् कम्मायत्तउ
है, तब तक अज्ञानी है, वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानसे रहित है, वह ज्ञान मोक्षका साधन
है, ज्ञान ही से मोक्षकी सिद्धि होती है
इसलिये हमेशा ज्ञानकी ही भावना करनी
चाहिये ।।१२२।।
आगे हे जीव, तू घर, परिवार और शरीरादिका ममत्व मत कर, ऐसा समझाते हैं
गाथा१२३
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, तू [गृहं ] घर, [परिजनं ] परिवार, [तनुः ] शरीर
[इष्टम् ] और मित्रादिको [आत्मीयं ] अपने [मा जानीहि ] मत जान, क्योंकि [आगमे ]
परमागममें [योगिभिः ] योगियोंने [दृष्टम् ] ऐसा दिखलाया है, कि ये [कर्मायत्तं ] कर्मोंके
आधीन हैं, और [कृत्रिमं ] विनाशीक है
भावार्थ :ये घर वगैरह शुद्ध चेतनस्वभाव अमूर्तीक निज आत्मासे भिन्न जो शुभाशुभ
कर्म उसके उदयसे उत्पन्न हुए हैं, इसलिये कर्माधीन हैं, और विनश्वर होनेसे शुद्धात्मद्रव्यसे