Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (itrans transliteration).

< Previous Page   Next Page >


Page 421 of 565
PDF/HTML Page 435 of 579

background image
Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
shrI diga.nbar jain svAdhyAyama.ndir TrasTa, sonagaDh - 364250
adhikAr-2 : dohA-124 ]paramAtmaprakAsh: [ 421
bhAvArtha:ghar, parivAr Adi paradravyane chi.ntavato thako tu.n karmamaLarUpI kala.nkarahit
kevaLaj~nAnAdi ana.nt guN sahit mokShane pAmIsh nahi. mAtra mokShane ja pAmIsh nahi eTalu.n ja
nahi paN nishchayavyavahAraratnatrayAtmak mokShamArgane paN pAmIsh nahi. tethI tu.n tapashcharaNanu.n ja
vAra.nvAr visheSh chintavan kar paN bIjA koInu.n nahi. tapashcharaNanA chi.ntavanathI shu.n phaL thAy Che?
tIrtha.nkar param devAdhidev Adi mahAn puruShoe Ashray karyo hovAthI je mahAn Che, evA pUrvokta
lakShaNavALA mokShane tu.n pAmIsh.
ahI.n, bAhya dravyonI ichChAnA nirodh vaDe vItarAg tAttvik Ana.ndamay paramAtmarUp
nirvikalpa samAdhimA.n sthit thaIne ane gR^ihAdinA mamatvane ChoDIne bhAvanA karavI joie, evu.n
tAtparya Che. 124.
मुक्खु इत्यादि मुक्खु कर्ममलकलङ्करहितंकेवलज्ञानाद्यनन्तगुणसहितं मोक्षं ण पावहि
प्राप्नोषि न केवलं मोक्षं निश्चयव्यवहाररत्नत्रयात्मकं मोक्षमार्गं च जीव हे मूढ जीव तुहुँ त्वम्
किं कुर्वन् सन् घरु परियणु चिंतंतु गृहपरिवारादिकं परद्रव्यं चिन्तयन् सन् तो ततः कारणात्
वरि वरं किंतु चिंतहि चिन्तय ध्याय किम् तउ जि तउ तपस्तप एव विचिन्तय नान्यत्
तपश्चरणचिन्तनात् किं फ लं भवति पावहि प्राप्नोषि कम् मोक्खु पूर्वोक्त लक्षणं मोक्षम्
कथंभूतं महंतु तीर्थंकरपरमदेवादिमहापुरुषैराश्रितत्वान्महान्तमिति अत्र बहिर्द्रव्येच्छानिरोधेन
वीतरागतात्त्विकानन्दपरमात्मरूपे निर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा गृहादि ममत्वं त्यक्त्वा च भावना
कर्तव्येति तात्पर्यम्
।।१२४।।
[चिन्तयन् ] चिंता करता हुआ [मोक्षं ] मोक्ष [न प्राप्नोषि ] कभी नहीं पा सकता, [ततः ]
इसलिये [वरं ] उत्तम [तपः एव तपः ] तपका ही बारम्बार [चिंतय ] चिंतवन कर, क्योंकि
तप से ही [महांतम् मोक्षं ] श्रेष्ठ मोक्ष सुखको [प्राप्नोषि ] पा सकेगा
भावार्थ :तू गृहादि परवस्तुओंको चिंतवन करता हुआ कर्म - कलंक रहित
केवलज्ञानादि अनंतगुण सहित मोक्षको नहीं पावेगा, और मोक्षका मार्ग जो निश्चयव्यवहार
रत्नत्रय उसको भी नहींपावेगा इन गृहादिके चिंतवनसे भववनमें भ्रमण करेगा इसलिये
इनका चिंतवन तो मत कर, लेकिन बारह प्रकारके तपका चिन्तवन कर इसीसे मोक्ष पायेगा
वह मोक्ष तीर्थंकर परमदेवाधिदेव महापुरुषोंसे आश्रित है, इसलिये सबसे उत्कृष्ट है मोक्षके
समान अन्य पदार्थ नहीं यहाँ परद्रव्यकी इच्छाको रोककर वीतराग परम आनन्दरूप जो
परमात्मस्वरूप उसके ध्यानमें ठहरकर घर परिवारादिकका ममत्व छोड़, एक केवल
निजस्वरूपकी भावना करना, यह तात्पर्य है
आत्म - भावनाके सिवाय अन्य कुछ भी करने
योग्य नहीं है ।।१२४।।